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आर.टी.आई से डर क्यों?

 दूसरों से पारदर्शिता की अपेक्षा करने वाले हमारे राजनीतिक दल खुद पारदर्शी नहीं होना चाहते। यही वजह है कि केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले के बाद राजनीतिक दलों में खलबली मची हुई है। जिस संसद ने देश को सूचना का अधिकार दिया, उसी संसद में बैठने वाले और उनके दल सारे मतभेद भुलाकर एक राय हैं कि राजनीतिक दल इस कानून के दायरे में नहीं आते।

अगर आप अपनी आमदनी और खर्च लोगों से छिपाते हैं तो तय मानिए आप कुछ न कुछ गड़बड़ी कर रहे हैं। खासकर, तब जब आप सार्वजनिक जीवन में कार्य कर रहे हों। यही बात राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है। बल्कि उन पर तो सबसे पहले लागू होती हैं—क्योंकि वे देश चला रहे हैं। लेकिन विसंगति देखिए, दूसरों से पारदर्शिता की अपेक्षा करने वाले हमारे राजनीतिक दल खुद पारदर्शी नहीं होना चाहते। यही वजह है कि केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले के बाद राजनीतिक दलों में खलबली मची हुई है। जिस संसद ने देश को सूचना का अधिकार दिया, उसी संसद में बैठने वाले और उनके दल सारे मतभेद भुलाकर एक राय हैं कि राजनीतिक दल इस कानून के दायरे में नहीं आते।
देश के दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों—कांग्रेस और भाजपा—से पार्टी फंड में मिले चंदे और खर्च की जानकारी मांगी गई थी। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म के अनिल वैरवाल व आर.टी.आई. कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल ने सूचना के अधिकार कानून के तहत इन दलों से जानकारियां चाही थीं। लेकिन दोनों दलों ने इनकार कर दिया। मामला सूचना आयोग के पास गया और आखिरकार इस माह आयोग ने ऐतिहासिक फैसला दिया कि छह सप्ताह के भीतर राजनीतिक दल याचिकाकर्ताओं को चंदे से लेकर खर्च तक सारी जानकारियां दें। आयोग ने इन दलों का यह तर्क स्वीकार नहीं किया कि वे आर.टी.आई. कानून के दायरे में नहीं आते। आयोग के अनुसार राजनीतिक दल सरकार से सहयोग लेते हैं। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उन्हें कई तरह की छूट मिलती है, जो एक तरह से फंड लेने जैसा कार्य है। जैसे आय पर करों की छूट, पॉश इलाकों में सरकारी बंगले, रियायती दरों में भूखंड आवंटन आदि। लिहाजा राजनीतिक दल आर.टी.आई. की धारा २ (एच) के तहत आते हैं। आयोग ने छह राष्ट्रीय दलों—कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा—को तय समय-सीमा में सारी जानकारियां देने का आदेश दिया है।
इस आदेश के बाद राजनीतिक दल बौखलाए हुए हैं। यह उनकी प्रतिक्रियाओं से जाहिर है। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा— 'आर.टी.आई. सूचना प्राप्त करने के लिए है। इसके जरिए किसी को उत्पात मचाने नहीं दिया जाएगा।' जनता दल (यू) की प्रतिक्रिया आई— 'राजनीतिक दल कोई परचूनी की दुकान नहीं। हम इस फैसले का विरोध करते हैं।' भाजपा के प्रकाश जावडेकर— 'जब चुनाव आयोग पार्टियों के खातों की जांच कर सकता है, तो अब सूचना आयोग क्या नया जोडऩा चाहता है।' लगभग सभी पार्टियों के सुर एक से हैं। किसी ने इस फैसले का स्वागत नहीं किया। केवल 'आप' को छोड़कर। लेकिन 'आप' अभी चुनाव मैदान में उतरे नहीं हैं। इसलिए उसकी प्रतिबद्धता का परीक्षण बाकी है। सवाल यह है कि राजनीतिक दल आर.टी.आई. से क्यों डरते हैं। अगर वे यह मानते हैं कि वे अपनी आमदनी और खर्च का पूरा ब्यौरा चुनाव आयोग और आयकर विभाग को देते रहे हैं, तो आर.टी.आई. के तहत भी देने में क्या हर्ज है? पारदर्शिता की खातिर एक तीसरी संस्था और सही। सवाल यह भी कि क्या राजनीतिक दल चंदे से मिली राशि का सम्पूर्ण ब्यौरा चुनाव आयोग को देते हैं? आंकड़ों से ही सिद्ध है कि दल केवल २० फीसदी राशि का ही ब्यौरा देते हैं। ८० फीसदी राशि किस स्रोत से आई, इस पर सारे राजनीतिक दल मौन हैं। नियमानुसार २० हजार रु. से अधिक चंदा देने वालों का नाम बताना जरूरी है। क्या कोई भरोसा करेगा कि करोड़ों रुपए की चंदा वसूली में २० हजार रु. से अधिक देने वालों का योगदान सिर्फ २० फीसदी है? आंकड़ों की बात बाद में। पहले राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाओं को देखें। सूचना के अधिकार के तहत देश में अब तक लाखों सूचनाएं दी गई हैं, क्या एक भी उदाहरण ऐसा है जिससे 'उत्पात' मच गया हो? विदेश मंत्री किस उत्पात की बात कर रहे हैं। जिस जनता ने आपको चुना, उसे ही जानकारी देने से उत्पात मचेगा या जानकारी छिपाने से? और फिर ऐसी क्या जानकारियां हैं जो लोगों से आप छिपाना चाहते हैं? जाहिर न करने वाली जानकारियां और सूचनाओं को तो आर.टी.आई. कानून के तहत पहले ही परिभाषित कर दिया गया है।
इसी तरह देश में अब तक सैकड़ों सरकारी विभागों ने आर.टी.आई. कानून के तहत पारदर्शिता और जनहित में लोगों को सूचनाएं उपलब्ध कराई हैं, क्या वे सब परचूनी की दुकान हैं? संसद में पारित एक कानून के प्रति किसी राष्ट्रीय दल की ऐसी अवमाननापूर्ण प्रतिक्रिया सचमुच शर्मनाक है।
राजधानी दिल्ली के पॉश इलाके की प्रमुख प्रॉपर्टियों में बड़े राजनीतिक दलों के विशाल दफ्तर हैं। चुनाव आयोग को दी गई सूचनाओं के अनुसार इन बड़े और भव्य बंगलों का मासिक किराया देखिए—२४ अकबर रोड पर कांग्रेस का दफ्तर, किराया ४२ हजार रु.। कांग्रेस के पास तीन दफ्तर और हैं। २६ अकबर रोड का किराया ३ हजार रु.। ५ रायसेना रोड का किराया ३४ हजार रु.। चाणक्यपुरी का किराया सिर्फ ८ हजार रु. प्रतिमाह। अशोक रोड पर भाजपा के विशाल दफ्तर का किराया ६६ हजार रु. मासिक। भाजपा के ही पंत मार्ग के दफ्तर का किराया सिर्फ १५ हजार रु.। एन.सी.पी. का डॉ. बी.डी. मार्ग के दफ्तर का किराया सिर्फ १३०० रु.। बसपा का जी.आर.जी. रोड के दफ्तर का किराया सिर्फ १३०० रु.। तीन मूर्तिलेन में माकपा दफ्तर का किराया सिर्फ १५०० रु.। कहने की जरूरत नहीं, इन बंगलों का मौजूदा किराया लाखों रु. मासिक बैठता है। इसी तरह दिल्ली में कांग्रेस को सरकार की ओर से दो भूखंड दिए गए हैं जिनका बाजार मूल्य इस समय करीब १ हजार करोड़ रु. तथा भाजपा को दिए गए दो भूखंडों का बाजार मूल्य करीब ५५० करोड़ रु. है। सरकार से आयकर छूट के वर्ष २००६-२००९ के आंकड़े देखें कांग्रेस, ३००.९२ करोड़। भाजपा, १४१.२५ करोड़। बसपा, ३९.८४ करोड़ रु.। हिसार के एक आर.टी.आई. कार्यकर्ता रमेश वर्मा के आवेदन पर मिली जानकारी के अनुसार २००७ से २०१२ के दौरान देश की दस प्रमुख पार्टियों की करमुक्त आय २,४९० करोड़ रु. थी। इसमें कांग्रेस की १,३८५.३६ करोड़ तथा भाजपा की ६८२ करोड़ रु. आय शामिल है।
इन आंकड़ों के तथ्य और सत्य हमें बहुत कुछ कह देते हैं। इन सूचनाओं से कभी कोई 'उत्पात' नहीं मचा। न ही ये सूचनाएं किसी 'परचूनी की दुकान' से आई थी। राजनीतिक दलों को यह अच्छी तरह समझा लेना चाहिए कि अगर वे सार्वजनिक जीवन में 'साफ-सफाई', 'शुचिता-स्वच्छता' के प्रति सचमुच कटिबद्ध हैं, तो उन्हें पारदर्शी होना ही पड़ेगा। 'पारदर्शिता' कोई रोग नहीं है, बल्कि रोग की दवाई है। अगर यह कड़वी भी है, तो रोगमुक्त होने के लिए पीनी पड़ेगी। राजनीतिक दलों को खुद आगे बढ़कर पहल करनी चाहिए। राजनीतिक दल ही क्यों, वे सभी संस्थान, इकाइयां, एनजीओ ट्रेड यूनियन जो सरकार से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चंदा प्राप्त करती हैं उन्हें आर.टी.आई. के दायरे में आना चाहिए। अभी देखना यह है कि सूचना आयोग के फैसले के खिलाफ राजनीतिक दल हाईकोर्ट में जाते हैं या नहीं।

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1 comments:

dr.mahendrag said...

मैं आपके द्रष्टि कोण से बिलकुल सहमत हूँ.
असलियत ये है कि ये सभी दल जनता के सामने अपने असली स्वरुप को नहीं आने देना चाहते.सभी के स्रोतों को देखें तो वे काले धन से जुड़े हैं.साथ ही वे नहीं चाहते कि जनता यह जाने कि वे किस प्रकार अपने इन दानदाताओं को लाभ पहुंचाते है,इस तरह ये दल मिलकर एक हो गएँ है,और जनता को दिखावे के लिए नूरा कुश्ती लड़ते हैं.सबका उधेश्य जनता को बेवकूफ बनाना है.अभी तो इस राग में बड़े दलों ने ही जुगल बंदी की है,थोड़े दिन में वे क्षेत्रीय दल भी जो मात्र एक व्यक्ति की दुकान मात्र हैं,इसमें शामिल हो जायेंगे.जब भी न्याय पालिका यदि इनके खिलाफ निर्णय देगी तभी ये सब सर्वसम्मति से इस बिल को उसके कार्य क्षेत्र से बाहर कर देंगे .इनका विरोध तो जनता के हितों से सम्बंधित बिलों पर होता है,जिसके ही पैसे से वेतन ले कर संसद में यह हंगामा करते हैं,.अपने वेतन भत्ते बढ़ाने में भी इनकी एकजुटता देखने के काबिल होती है.लानत है इन बेशर्म लोगों को.पर जनता कि भी मजबूरी है कि वह किसको चुने?ये सभी मौसेरे भाई हैं.