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और अब 'स्लो न्यूज!'

तेज खबर पहुंचाने की दौड़ में हर चैनल नंबर वन रहने को आमादा है। कई चैनल इन शब्दों को ब्रह्म वाक्य की तरह इस्तेमाल करते हैं— 'सबसे आगे', 'सबसे पहले' या 'सबसे तेज।' इस 'तेजस्विता' के चलते खबर की गुणवत्ता खतरे में है। ऐसे में मीडिया विशेषज्ञों की चिन्ता स्वाभाविक है। 'स्लो न्यूज' की अवधारणा संभवत: इन्हीं परिस्थितियों की उपज है।


खबरों की दुनिया में एक नया विचार सामने आया है, वह है— 'स्लो न्यूज।' 'स्लो न्यूज' का शाब्दिक अर्थ तो आप जानते होंगे, लेकिन वास्तविक अर्थ केवल 'धीमा समाचार' नहीं है। जैसे 'फास्ट फूड' के विरोध में 'स्लो फूड' आन्दोलन उभरा, वैसे ही 'फास्ट न्यूज' से हो रहे दूरगामी नुकसान की प्रतिक्रिया में 'स्लो न्यूज' के विचार ने जन्म लिया है। इसके प्रणेता टोरेन्टो विश्वविद्यालय के पत्रकारिता कार्यक्रम के निदेशक जेफ्रे ड्वोरकिन हैं।
आप जानते हैं, अखबार हों या न्यूज चैनल—खबरों को लेकर एक-दूसरे को पीछे छोडऩे की होड़ सदा मची रहती है। न्यूज चैनलों के बीच तो गलाकाट प्रतिस्पर्धा चलती है। कौन सबसे तेज यानी सबसे पहले 'ब्रेकिंग न्यूज' की पट्टी चलाता है, मानो यही सर्वोपरि है। किसी चैनल ने कोई बड़ी घटना की खबर सबसे पहले 'ब्रेक' कर दी तो वह दिन भर ढोल पीटता है— 'सबसे पहले हमने दी दर्शकों को जानकारी।' सबसे तेज खबर पहुंचाने की दौड़ में हर चैनल नंबर वन रहने को आमादा है। शायद इसीलिए कई चैनल इन शब्दों को ब्रह्म वाक्य की तरह इस्तेमाल करते हैं— 'सबसे आगे', 'सबसे पहले' या 'सबसे तेज।' सबसे तेज की यह अंधी होड़ आप दुनिया भर के मीडिया संगठनों में देख सकते हैं। इस 'तेजस्विता' के चलते खबर की गुणवत्ता खतरे में है। हड़बड़ी में कई बार तथ्यहीन, असत्य या अपरिपक्व खबरें परोस दी जाती हैं। संभव है, बाद में उस खबर का परिमार्जन या संशोधन भी हो जाए, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। जो नुकसान होना था, वह हो चुका होता है। प्रिंट मीडिया की स्थिति थोड़ी बेहतर है, लेकिन खबरों की हड़बड़ी वहां पर भी कम नहीं है।
ऐसे में दुनिया भर में खबर की गुणवत्ता को लेकर मीडिया विशेषज्ञों की चिन्ता स्वाभाविक है। 'स्लो न्यूज' की अवधारणा संभवत: इन्हीं परिस्थितियों की उपज है।
गत दिनों 'आर्गेनाइजेशन ऑफ न्यूज ओम्बुड्समैन' (ओ.एन.ओ.) के लॉस एंजीलिस में हुए सम्मेलन में खबरों से जुड़े कई पहलुओं पर विचार किया गया। सम्मेलन में दुनिया भर में खबरों की गुणवत्ता को लेकर पेश आ रही गंभीर चुनौतियों पर चर्चा हुई। सम्मेलन में जेफ्रे ड्वोरकिन भी शामिल थे। जेफ्रे ड्वोरकिन का विचार है कि मीडिया संगठनों को 'स्लो न्यूज' की अवधारणा पर ध्यान देना चाहिए और इसे एक आन्दोलन का रूप दिया जाना चाहिए। क्योंकि आज हमें इसकी बहुत जरूरत है। वे कहते हैं कि मीडिया संगठनों को यह समझना जरूरी है कि उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता खबरों और सूचनाओं की लालसा रखने वाली जनता है। जेफ्रे मानते हैं कि मीडिया में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बुरी नहीं है, लेकिन मीडिया संगठनों की आपसी अंधी होड़ नुकसानदायक है। वे एक-दूसरे को यहां तक कि सोशल मीडिया को भी पीछे छोडऩे की दौड़ में फंसे हुए हैं। इस प्रतिस्पर्धा ने खबर की 'शुद्धता' के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को कुंद कर दिया है। हम मिलावटी खबरें परोसने लगे हैं। संवाददाताओं के पास आधुनिकतम उपकरण हैं, लेकिन हमारी रिपोर्टिंग महज तकनीक में तब्दील होकर रह गई है। हम खबर के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। बोस्टन और सैन्डी हुक के उदाहरण हमारे सामने हैं। जनता जान गई है कि विशुद्ध खबर तक कैसे पहुंचा जाए। जनता के पास सोशल मीडिया का विकल्प भी है। हम (मीडिया) जनता तक वे ही खबरें पहुंचाएं, जो वह चाहती हैं और जिसकी उसे जरूरत है। वे कहते हैं, 'स्लो न्यूज' का विचार अपनाएं। यह हमारे लिए बहुत मददगार तरीका है। हड़बड़ी में न रहें। सुव्यवस्थित और विशुद्ध खबर ही जनता को दें। उसकी आवश्यकताओं को समझों।
जेफ्रे ड्वोरकिन अंत में सवाल उठाते हैं— 'क्या मीडिया संगठन ऐसा करने को इच्छुक हैं?'
निश्चय ही जेफ्रे ड्वोरकिन ने महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। खासकर, उस समय जब मीडिया संगठनों में एक-दूसरे को पछाडऩे की दौड़ चरम पर है। दबाव और तनाव के बीच कई बार परस्पर विरोधी और तथ्यहीन सूचनाएं प्रसारित हो जाती हैं। पाठक या दर्शक विभ्रम में फंस जाता है। यह स्थिति दीर्घकालिक तौर पर ठीक नहीं। क्योंकि इससे खबरों की विश्वसनीयता घटती चली जाएगी और अन्ततोगत्वा समाचार मीडिया का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
बेशकीमती जिन्दगी
हमारे एक पाठक को 'पत्रिका' सहित कुछ मीडिया संगठनों के छत्तीसगढ़ में 25 मई की घटना को 'देश का सबसे बड़ा माओवादी हमला' लिखने पर ऐतराज है। भिलाई के सत्यप्रकाश दुबे के अनुसार जिसमें सबसे ज्यादा निर्दोष लोग मारे गए वही सबसे बड़ा माओवादी हमला कहा जाए। राजनीतिक आधार पर भेदभाव करना उचित नहीं। दुबे के अनुसार 28 मई, 2010 में प. बंगाल में मिदनापुर के झाारग्राम के पास माओवादियों ने रेलवे ट्रैक उड़ा दिया था, जिसमें 140 निर्दोष लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। घटना में रेल बोगी उड़ गई थी और लाशों के चिथड़े-चिथड़े बिखर गए थे। इस घटना से कोई 15 दिन पूर्व छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में माओवादियों ने एक यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया था, जिसमें 40 निर्दोष लोग मारे गए। सीआरपीएफ के जवानों को नक्सली अपना दुश्मन मानते हैं। लेकिन संख्या का आंकड़ा देखें तो 6 अप्रेल, 2010में दंतेवाड़ा में ही माओवादियों ने जवानों पर सबसे बड़ा हमला बोलते हुए एक साथ 76 जवानों को भून डाला था। क्या ये घटनाएं हाल की नक्सली हमले से छोटी थी, जिसमें कुछ राजनेताओं सहित 28 लोग मारे गए। जीवन हर व्यक्ति का बेशकीमती है, जिसे छीनने का किसी दूसरे को हक नहीं। इसलिए इन्सानी जिन्दगी में विभेद उचित नहीं। हां, राजनेताओं पर हमला होने से पूरा तंत्र जरूर हिल गया है, जो अब तक निश्चेतप्राय: था।
खोजी पत्रकार चाहिए
वाशिंगटन स्थित इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इन्वेस्टीगेशन जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) को दो खोजी पत्रकारों की जरूरत है जो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर डाटा का विश्लेषण-अन्वेषण कर सके। इनमें एक सीनियर रिपोर्टर और दूसरे को कम-से-कम तीन वर्ष का पत्रकारीय अनुभव होना चाहिए। आईसीआईजे 60 से अधिक देशों के 160 खोजी पत्रकारों का अन्तरराष्ट्रीय समूह है। यह वही संगठन है जिसने पिछले दिनों काला धन विदेशों में छिपाने वाले देशों और लोगों के बारे में सनसनीखेज जानकारियां उजागर की थी। समूह का दावा है कि उसके पास जूलियन असांजे से भी कई गुणा ज्यादा गोपनीय दस्तावेज हैं तथा 170 देशों की सूची उसके पास है, जिन्होंने विदेशों में कंपनियों और ट्रस्टों के जरिए करोड़ों-अरबों रुपयों का निवेश और गोपनीय लेन-देन किया है।

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