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प्रेस परिषद का दोहरा रवैया

भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट को जहां एक ओर सराहा गया है, वहीं आलोचना भी की गई है।  जो मुद्दे उठाए गए हैं, उस पर व्यापक चर्चा की जरूरत है। सरकारी विज्ञापन ही नहीं, कॉरपोरेट विज्ञापनों को लेकर भी एक स्पष्ट नीति की जरूरत है जिसके तहत प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा की जा सके। क्या प्रेस की स्वतंत्रता का मसला एक राज्य तक सीमित है? प्रेस परिषद के सीमित अधिकार हैं, लेकिन जो है उनके इस्तेमाल में भेदभाव की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। 

  बिहार में अखबारों की स्थिति को लेकर भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट पर मीडिया जगत में दो तरह की परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक तबका मानता है कि यह रिपोर्ट पूर्वाग्रह से ग्रसित है। रिपोर्ट में जो कहा गया है वह कमोबेश सभी राज्यों पर लागू होता है फिर अकेला बिहार ही क्यों? दूसरे तबके की राय में प्रेस परिषद ने ज्वलंत मुद्दा उठाया है। बिहार में अखबारों के हालात सचमुच दयनीय है।
प्रेस परिषद की तीन सदस्यीय समिति ने बिहार में ११ माह पड़ताल करके एक रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार में प्रेस पर सेंसरशिप है और वहां आपातकाल जैसे हालात हंै। नीतिश सरकार ने अखबारों की स्वतंत्रता का गला घोंट रखा है। सरकारी विज्ञापन चहेते अखबारों को ही दिये जाते हैं। चूंकि सरकारी विज्ञापन अखबारों की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, इसलिए इनका इस्तेमाल अखबारों पर अंकुश लगाने के लिए किया जा रहा है। अखबार सरकार के दबाव में हैं इसलिए बिहार में भ्रष्टाचार और दूसरे महत्त्वपूर्ण मुद्दों की उपेक्षा की जा रही है। सरकारी उपलब्धियों और तारीफों की ही एक तरफा तस्वीर पेश की जा रही है। अत: प्रेस परिषद की मांग है कि बिहार में सरकारी विज्ञापनों के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी बनाई जाए जो तय मापदंडों के अनुसार अखबारों को विज्ञापन जारी करे।
जैसाकि पहले कहा, इस रिपोर्ट को जहां एक ओर सराहा गया है, वहीं आलोचना भी की गई है। 'आउटलुक' गु्रप के अध्यक्ष विनोद मेहता, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष टी.एन. नैनन, इंडिया टुडे के आशीष बग्गा, आईबीएन के राजदीप सरदेसाई, पॉयोनियर के संपादक चंदन मित्रा आदि मीडिया विशेषज्ञों के अनुसार प्रेस परिषद ने महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है जिस पर व्यापक चर्चा की जरूरत है। सरकारी विज्ञापन ही नहीं, कॉरपोरेट विज्ञापनों को लेकर भी एक स्पष्ट नीति की जरूरत है जिसके तहत प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा की जा सके। सरकारें आम तौर पर विज्ञापनों के बहाने अखबारों की बाहें मरोडऩे का काम करती हंै, जो प्रेस की स्वतंत्रता के लिए खतरा है।
दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा है जो यह तो मानता है कि बिहार में सरकारी विज्ञापनों का दुरुपयोग किया जा रहा है, मगर प्रेस सेंसरशिप और आपातकाल जैसे हालात बताना अतिरंजित है। कुछ हद तक रिपोर्ट पूर्वाग्रह से भी ग्रसित है। प्रेस परिषद की समिति ने बिहार में ११ माह तक तहकीकात करके जो निष्कर्ष निकाला है वह तो प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू एक साल पहले ही निकाल चुके। पत्रकार विनीत कुमार के अनुसार एक साल पहले इसी फरवरी में जस्टिस काटजू ने जब पटना का दौरा किया तो बताया कि बिहार में मीडिया के हाथ बंधे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि गत वर्ष २५ फरवरी को पटना विश्वविद्यालय के एक सेमिनार से जस्टिस काटजू ने कहा था कि बिहार में मीडिया पर सेंसर है। जबकि लालू राज के दौरान मीडिया को आजादी थी। उन्होंने यह घोषणा भी कि कि परिषद के तीन सदस्य बिहार आकर पड़ताल करेंगे। यह सवाल उठाया गया है कि परिषद अध्यक्ष निष्कर्ष पर पहले ही पहुंच चुके तो समिति गठित करने की क्या जरूरत थी। दरअसल प्रेस परिषद की रिपोर्ट पूर्वाग्रह से ग्रसित बताने के पीछे तर्क है कि दूसरे प्रदेशों की सरकारें भी वही कर रही हैं जो बिहार सरकार कर रही है। विज्ञापनों के जरिए मीडिया को 'मैनेज' करने की सरकारों की प्रवृत्ति पुरानी है। इसलिए केवल बिहार ही निशाने पर क्यों? पत्रकार मुकेश भारतीय ने लिखा 'काटजू जी बिहार के चारों ओर भी झाांकिये' पिछले वर्ष झाारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा सत्ता से जाते-जाते मीडिया के लिए सरकारी विज्ञापन मद की राशि चार गुणा कर दी। आदित्य नारायण उपाध्याय के अनुसार मध्यप्रदेश में भी प्रेस और पत्रकारों पर अघोषित सेंसरशिप है। यहां का जनसम्पर्क विभाग पहचान- पहचान कर विज्ञापन दे रहा है और ऐसे अखबारों को निपटा रहा है जो सरकार की विरुदावली नहीं गाते। मध्यप्रदेश, छतीसगढ़, झाारखंड, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि कई राज्यों की सूची है, जहां सरकारी विज्ञापनों की आड़ में प्रेस की बाहें मरोड़ी जाती है। प्रेस परिषद को इसकी जानकारी नहीं होगी, यह संभव नहीं। बल्कि कुछ शिकायतों की तो परिषद ने बाकायदा अनदेखी की अथवा औपचारिकता भर निभाई। कुछ समय पूर्व 'इंडियन एक्सप्रेस' ने विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार किस तरह मीडिया से खबरों के पैकेज खरीद रही है। प्रेस परिषद मौन रही। यह सही है कि रिपोर्ट मुख्यत: टीवी चैनलों से संबंधित थी, लेकिन यही हालात कई अखबारों के भी है जो किसी से छिपा नहीं हंै।
इसमें दो राय नहीं कि प्रेस परिषद के सीमित अधिकार हैं, लेकिन जो हैं उनके इस्तेमाल में भेदभाव की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। प्रेस परिषद, केन्द्र व समस्त राज्य सरकारों की विज्ञापन नीति को लेकर कोई दिशा निर्देश देती है तो बेहतर होता। बिहार ही क्यों, अन्य राज्यों में भी सरकारी विज्ञापनों के लिए स्वतंत्र एजेंसी क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या प्रेस की स्वतंत्रता का मसला एक राज्य तक सीमित है?
पत्रकार, सच्चाई और जोखिम
किसी पत्रकार को सच्चाई उजागर करने पर पुरस्कार की बजाय जेल की सजा मिले तो इसे आप क्या कहेंगे? पुलिस की ज्यादती? सरकार की संवेदनहीनता? या कानून की विसंगति? आप चाहे कुछ भी कहें, लेकिन कन्नड़ के एक टीवी पत्रकार नवीन सूरिंजे पिछले तीन माह से भी अधिक समय से जेल की सजा भुगत रहे हैं। नवीन सूरिंजे ने मंगलूर से एक होटल में बर्थ-डे पार्टी मना रहे युवक-युवतियों के एक समूह पर हमला करने तथा युवाओं को अपमानित करने वालों की टीवी चैनल पर पोल खोली थी। हिन्दू जागरण वेदिके नामक संगठन के करीब ४३ तथाकथित कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी को नवीन ने टीवी कैमरे में कैद कर लिया था। टीवी पर इन कथित कार्यकर्ताओं की कारगुजारी उजागर होने के बाद लोगों ने पुलिस को जमकर कोसा। लिहाजा पुलिस ने सभी ४३ जनों को गिरफ्तार कर लिया। नवीन सूरिंजे को भी पुलिस ने ४४वां अभियुक्त बनाकर जेल में डाल दिया। नवीन सूरिंजे पर यह आरोप लगाया गया कि वह भी इस साजिश में शामिल थे। क्योंकि पूर्व जानकारी के बावजूद नवीन सूरिंजे ने पुलिस को इसकी जानकारी नहीं दी। अदालत ने भी सूरिंजे को जमानत देने से इनकार कर दिया कि उन्होंने पूर्व जानकारी के बावजूद पुलिस को इसकी सूचना क्यों नहीं दी? बचाव में सूरिंजे का कहना है कि उन्हें घटना की सूचना पहले से नहीं थी।  एक स्थानीय व्यक्ति से जब उन्हें सूचना मिली तो उन्होंने मंगलूर के पुलिस कमिश्नर को फोन किया था, लेकिन उन्होंने फोन रिसीव नहीं किया। टीवी पत्रकार का तर्क था कि उसने पत्रकारिता धर्म का निर्वाह किया।
सवाल है, सूरिंजे को सजा मिलनी चाहिए या इनाम? पत्रकारिता के प्राध्यापक आनन्द प्रधान ने सही लिखा 'अपराधियों को सामने लाने और दोषियों की पहचान करने में मदद करने वाले सूरिंजे जैसे पत्रकारों को ही फंसाने की कोशिश की जाएगी तो कितने पत्रकार यह जोखिम उठाएंगे?' सचमुच पत्रकारिता से अगर 'जोखिम' हट गया तो समझिाए पत्रकारिता भी मिट गई। क्या नहीं?

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