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असरदार 'लाइव' प्रसारण

संसद पर आतंकी हमले से लेकर अफजल गुरु के फांसी के घटनाक्रम के विभिन्न पहलुओं को टीवी चैनलो द्वारा खंगाला गया। कुल मिलाकर नेताओं की करनी और कथनी का भेद उन्हीं के सामने खुल चुका था जिसे लाखों दर्शकों ने देखा। इस बात का अहसास नेताओं को हो गया
था। उनकी हालत देखने लायक थी।

अफजल गुरु को फांसी हुई, उस पूरे दिन टीवी चैनलों ने घटना से जुड़े कई कार्यक्रम दिखाए। संसद पर आतंकी हमले से लेकर फांसी के घटनाक्रम के विभिन्न पहलुओं को खंगाला गया। राजनेताओं की प्रतिक्रियाएं, साक्षात्कार और परिचर्चाओं के बीच एक कार्यक्रम ने सबसे ज्यादा ध्यान खींचा। टीवी स्टूडियो में उन सुरक्षाकर्मियों के परिजन भी मौजूद थे, जो १३ दिसम्बर २००१ को सांसदों-मंत्रियों की सुरक्षा करते हुए शहीद हो गए थे। चर्चा में भाग लेने वाले अन्य लोगों के साथ दो-एक राजनेता भी थे, जो उस दिन हमले के दौरान संसद में मौजूद थे। संसद भवन में उस वक्त दिल्ली पुलिस, सीआरपीएफ और संसदीय वाच एंड वार्ड के अनेक जवान तैनात थे। आतंकियों से मुठभेड़ के दौरान उनमें 8 सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए थे।
चर्चा में दोनों प्रमुख दलों—कांग्रेस व भाजपा के प्रवक्ता भी शामिल थे। इस कार्यक्रम में पंजाब में आतंकवाद का निडरता से सामना कर चुके मनिन्दरजीत सिंह बिट्टा, पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी, कांग्रेस के राशिद अल्वी, भाजपा के रविशंकर प्रसाद आदि मौजूद थे। दोनों दलों के नेताओं ने आतंकवाद की निन्दा की। संसद पर हमला करने वालों को कोसा। अफजल गुरु की फांसी को उचित ठहराया। फांसी में देरी क्यों हुई, इस पर दोनों में तीखे मतभेद थे। लेकिन एक बात पर दोनों नेता एकराय थे। दोनों ने संसद में तैनात सुरक्षाकर्मियों के साहस और वीरता की भरपूर तारीफ की। उन्होंने कृतज्ञ भाव से माना कि उस दिन सुरक्षाकर्मियों की बदौलत ही सांसद और मंत्रीगण बच पाए थे। दोनों ने श्रद्धापूर्वक शहीद सुरक्षाकर्मियों के प्रति संवेदना व्यक्त की और उनके परिजनों के प्रति सहानुभूति दर्शाई। शायद चर्चाकारों को यह जानकारी नहीं होगी कि स्टूडियो में दर्शकों के बीच शहीदों के परिजन भी मौजूद हैं। या जानकारी होगी तो यह आभास नहीं होगा कि वे क्या कहने वाले हैं। इसलिए जब एक नेता ने शहीदों के परिजनों की शान में गदगद होकर कशीदे पढऩे शुरू किए तो एंकर पूण्य प्रसून वाजपेयी ने हस्तक्षेप किया। वाजपेयी ने पहले शहीदों के परिजनों की प्रतिक्रिया जान लेनी चाही। परिजनों से पूछा—क्या कोई राजनेता, किसी दल का प्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी इस बीच उनसे कभी मिलने आया? परिजनों ने एक-एक करके जवाब दिया कि कोई नहीं आया। परिजनों के स्वर में व्यथा थी। उनका कहना था कि पिछले बारह वर्षों में किसी नेता ने उनके हालचाल जानने की कोशिश नहीं की। शहीद के एक बुजुर्ग पिता तो नेताओं पर फट पड़े— 'सब कोरी बातें करते हैं। यहां टीवी पर बखान करते हैं, लेकिन करते-धरते कुछ नहीं। हमने ये बारह बरस किस तरह तिल-तिल करके काटे हैं, यह हम ही जानते हैं। कोई एक बार भी हमसे मिलने नहीं आया।' सन्नाटा छा गया था।
परिचर्चाकार हतप्रभ थे। जो थोड़ी देर पहले शहीदों के लिए डींग हांक रहे थे, वे बगलें झाक रहे थे। अलबत्ता, सभी परिजनों ने मनिन्दरजीत सिंह बिट्टा की खुलकर तारीफ की। उन्होंने बताया कि एक बिट्टा ही थे, जो उनसे समय-समय पर मिलते रहते थे। शहीदों के परिजनों की पीड़ा बाद में मीडिया में और कई जगहों पर व्यक्त हुई। सीकर जिले के शहीद जे.पी. यादव के परिजनों की शिकायत थी कि घोषणा के बावजूद सरकार ने उन्हें अभी तक जमीन नहीं दी। राजनीतिक दलों और नेताओं की कलई मीडिया के जरिए सरेआम खुल चुकी थी। किसी के पास कोई जवाब नहीं था। दोनों प्रमुख दलों के नेताओं को तो कुछ कहते नहीं बन रहा था। काफी देर बाद रविशंकर प्रसाद बोल पाए कि अगर शहीदों के इन परिजनों के साथ कुछ नाइंसाफी हुई है तो वे उनका साथ देंगे। राशिद अल्वी भी अचकचाए हुए थे। बोले, उन्हें मालूम नहीं कि संसद के शहीदों के परिजनों के साथ इस दौरान क्या हुआ। वे मालूमात करेंगे। जो संभव होगा करेंगे।
कुल मिलाकर नेताओं की करनी और कथनी का भेद उन्हीं के सामने खुल चुका था जिसे लाखों दर्शकों ने देखा। इस बात का अहसास नेताओं को हो गया था। उनकी हालत देखने लायक थी। कर्तव्य के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने वाले शहीदों के प्रति हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन स्वयं अपना कर्तव्य नहीं निभाते। शहीदों की मूर्तियों का अनावरण करते हैं। उन्हें मरणोपरांत अलंकरणों से सुशोभित करते हैं। उनके परिजनों को एक दिन समारोह में बुलाकर सम्मानित करते हैं। और फिर हमेशा के लिए उन्हें भूल जाते हैं। कम से कम राजनीतिक दलों और नेताओं का तो यही हाल है जिसे टीवी कार्यक्रम ने बहुत शिद्दत से जाहिर कर दिया। मीडिया, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया का 'लाइव' कैमरा किसी को नहीं बख्शता। शायद इसीलिए आजकल ज्यादातर राजनेता मीडिया से बचने की कोशिश करते हैं।
कहां है मीडिया की स्वतंत्रता
यों तो भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। परन्तु दुनिया भर में हम मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में कितने लोकतांत्रिक हैं, इसकी जानकारी 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' की हाल ही जारी रिपोर्ट में दी गई है। इसमें अन्तरराष्ट्रीय रैकिंग में भारत का स्थान 140वें नंबर पर आंका गया है। उल्लेखनीय बात यह है कि पिछले साल भारत का स्थान 131वें नंबर पर था। यानी मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में हम दिनोंदिन पिछड़ते जा रहे हैं। इस गिरावट का कारण खासकर सोशल मीडिया पर रोक के सरकारी प्रयासों को माना जा रहा है। कभी कार्टून के नाम पर तो कभी 'बड़े' राजनेताओं या उनके परिजनों के खिलाफ टिप्पणी को लेकर सरकार का जो रवैया रहा है, उसी का परिणाम है कि हम 9 पायदान और पिछड़ गए हैं। सूची में पहले नंबर पर फिनलैंड है।
और इधर चीन को देखो
चीन इस सूची में 173 नंबर पर है। यानी सबसे फिसड्डी। अपने घर में मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में तो चीन बदनाम है ही, अब दूसरे देशों के मीडिया पर भी चीन की नजरें गड़ी है। पिछले दिनों चीन के हैकरों ने 'न्यूयार्क टाइम्स' और 'वाल स्ट्रीट जर्नल' जैसे अखबारों पर साइबर हमले किए। न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार चीनी हैकर्स पिछले चार माह से अखबार के रिपोर्टरों के कम्प्यूटरों पर साइबर हमले कर रहे हैं। उन रिपोर्टरों के कम्प्यूटरों पर ज्यादा हमले किए गए हैं, जो चीन के नेताओं पर कोई रिपोर्ट तैयार कर रहे थे। 'द वाल स्ट्रीट जर्नल' के साथ भी यही दोहराया गया।

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