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सोशल मीडिया का दुरुपयोग

सवाल है, क्या अब सोशल मीडिया अफवाहें व वैमनस्य फैलाने का माध्यम बन रहा है? क्या वह दो देशों के बीच दुश्मनी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल हो रहा है? क्या सोशल मीडिया एक कठपुतली है, जिसे नचाने वाला जैसा चाहे नाचने को मजबूर कर सकता है? अगर ऐसा है तो सोशल मीडिया जितना ताकतवर है उतना ही कमजोर भी है। जितना उपयोगी है, उतना ही खतरनाक भी है।

पड़ोसी देश म्यांमार की घटना है यह। वहां गत दिनों भड़की जातीय हिंसा में कई लोग मारे गए। इसी को फेसबुक पर बयान करते हुए एक फोटो अपलोड की गई। फोटो में एक स्थान पर कई शव दिखाए गए थे। इन्हें म्यांमार में हिंसा में मारे गए एक समुदाय के लोगों की लाशें बताया गया था।
यह फोटो दरअसल, म्यांमार की न होकर इंडोनेशिया की थी और शव जातीय हिंसा में मारे गए लोगों के न होकर सुनामी नामक तूफान में मारे गए लोगों के थे। यह फोटो अन्तरराष्ट्रीय फोटो एजेन्सी एपी द्वारा वर्ष २००४ में जारी की गई थी, जो कई अखबारों में छपी थी। फोटो में तूफान से मारे गए लोगों के शव समुद्र किनारे बहकर आए एक ढेर के रूप में पड़े इस प्राकृतिक आपदा की विभीषिका को बयान कर रहे थे। इस फोटो को फेसबुक पर म्यांमार की हिंसा से जोड़कर प्रचारित किया गया, लेकिन असलियत छुप न सकी। अलबत्ता, इस फोटो के जरिए निहित स्वार्थी तत्व और कट्टरपंथी ताकतें अपने मकसद में कुछ हद तक जरूर कामयाब हो गईं।
असम में भड़की हिंसा तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के नागरिकों का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन की घटनाओं को भी इससे जोड़कर देखा जा सकता है। धीरे-धीरे साफ हो रहा है कि भारत में सोशल मीडिया के जरिए अफवाहें फैलाने की कुचेष्टा पाकिस्तान की तरफ से हुई। पाक खुफिया एजेन्सी आईएसआई की शह पर कट्टरपंथी ताकतों ने सोशल मीडिया का जमकर दुरुपयोग किया। गलत सूचनाओं व भ्रमित करने वाली फोटुओं को वेबसाइटों पर डाला गया। बल्क एसएमएस के जरिए दहशत भरे संदेश भेजे गए। भारत के गृह सचिव के अनुसार पाकिस्तान की 76 वेबसाइट्स की पहचान की गई है, जिनसे अफवाहें फैलाई गई और भारत में उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोग पलायन को मजबूर हुए। सोशल मीडिया का ऐसा दुरुपयोग पहले कभी सामने नहीं आया। सवाल है, क्या अब सोशल मीडिया अफवाहें व वैमनस्य फैलाने का माध्यम बन रहा है? क्या वह दो देशों के बीच दुश्मनी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल हो रहा है? क्या सोशल मीडिया एक कठपुतली है, जिसे नचाने वाला जैसा चाहे नाचने को मजबूर कर सकता है? अगर ऐसा है तो सोशल मीडिया जितना ताकतवर है उतना ही कमजोर भी है। जितना उपयोगी है, उतना ही खतरनाक भी है।
संभवत: इसीलिए उत्तर-पूर्व के राज्यों के पलायन पर संसद में 17 अगस्त को विशेष चर्चा के दौरान कुछ सांसदों ने सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने की मांग तक कर डाली। जब-तब सरकारों द्वारा सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने की बात कही जाती रही है। कुछ देशों में ऐसा किया भी गया है। लेकिन क्या यह समस्या का वास्तविक समाधान है? यहां हम रोग को खत्म करने की बजाय रोगी को ही खत्म करते नजर आते हैं। दरअसल, सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार है, जो दोनों तरफ वार करती है। वार करने वाला चाहे तो दुश्मन से अपना बचाव कर सकता है। या फिर खुद अपना गला भी काट सकता है। लेकिन इसमें तलवार का क्या दोष? तलवार तो शत्रु को पराजित करने के लिए ही बनी है, न कि खुद का नाश करने के लिए। यही बात सोशल मीडिया पर लागू होती है।
सोशल मीडिया की उपयोगिता, महत्व और वास्तविक शक्ति को पहचाना जाना चाहिए। क्या हम भूल गए हाल के बरसों में कई देशों में तानाशाहों का खात्मा करने में इसकी क्या भूमिका रही? आक्यूपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन को सोशल मीडिया ने ही परवान चढ़ाया। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आन्दोलन को इसी ने ताकत दी। गुवाहाटी में अकेली लड़की के साथ सरेआम खिलवाड़ करने वाले गुंडों को जेल के सींखचों में सोशल मीडिया ने ही पहुंचाया। शक्तिशाली सत्ता केन्द्रों के खिलाफ कमजोर और आम जन की आवाज बना है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल अगर निहित स्वार्थी ताकतें अफवाहें फैलाकर शान्ति भंग करने के लिए करती हैं, तो अमन पसंद ताकतें इसका जोरदार जवाब भी सोशल मीडिया से दे सकती हैं, अमन व भाईचारा कायम रख सकती हैं। शत्रु को शत्रु के हथियार से ही परास्त करना चाहिए जैसे, सुनामी की जिस फोटो का दुरुपयोग किया गया था उसकी असलियत भी सोशल मीडिया ने ही उजागर की।
साहित्यिक चोरी और पत्रकार
पिछले दिनों मीडिया-जगत में एक शर्मसार करने वाली घटना हुई। भारतीय मूल के जाने-माने अमरीकी लेखक व स्तंभकार फरीद जकारिया पर साहित्यिक चोरी का इल्जाम लगा। इस इल्जाम में टीवी चैनल सीएनएन व टाइम पत्रिका ने उन्हें निलंबित कर दिया। जकारिया ने टाइम पत्रिका के 20 अगस्त अंक में अपने स्तंभ में हथियार नियंत्रण पर लेख लिखा था। यह लेख एक अन्य प्रसिद्ध अमरीकी लेखक प्रो. जिल लेपोर के लेख से काफी मिलता-जुलता था। यह लेख 'द न्यूयार्कर' के 23 अप्रेल के अंक में छपा था। हालांकि जकारिया पर जिल लेपोर के लेख के एक पैरेग्राफ की चोरी करने का इल्जाम था, लेकिन इससे उनकी प्रतिष्ठा को बहुत आघात लगा। 48 वर्षीय फरीद जकारिया का भारत के मीडिया जगत में भी बहुत मान-सम्मान है। उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। स्वयं जकारिया इस साहित्यिक चोरी से लज्जित हैं। उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करते हुए सी.एन.एन. के दर्शकों तथा टाइम के पाठकों से माफी मांगी। जकारिया ने तुरन्त अपनी गलती स्वीकार करके अच्छा ही किया। लेखन के अपने मापदंड और आचार-संहिता हैं, जिनका पालन हर हाल में किया जाना चाहिए। अन्यथा लेखन के जरिए हम जिस समाज को प्रभावित करना चाहते हैं वह हम पर अपना विश्वास खो देगा। यह लेखन की बहुत बड़ी हानि होगी। लेखक की तो होगी ही।
जूलियन असांजे बनाम अमरीका
दुनिया भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतीक बने 'विकीलीक्स' के खोजी पत्रकार जूलियन असांजे फिर चर्चा में हैं। लंदन स्थित इक्वेडोर के दूतावास में असांजे गत रविवार को अचानक प्रकट हुए। इक्वेडोर के राजनीतिक शरण में रह रहे असांजे ने दूतावास के भीतर से ही अपने समर्थकों को संबोधित किया। असांजे ने कहा, दुनिया में अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है। पत्रकारों को चुप कराया जा रहा है ताकि लोग सच्चाई न जान सकें। अमरीका समेत दुनिया भर की सरकारें यही कर रही हैं। अपनी वेबसाइट विकीलीक्स के जरिए इराक, अफगानिस्तान के युद्धों सहित अमरीकी सरकार के कई महत्वपूर्ण राज उजागर करके उन्होंने पूरी दुनिया को चौंका दिया था। उनका आरोप है कि तभी से अमरीका उनके पीछे पड़ा है। ब्रिटेन सरकार असांजे को स्वीडन सरकार को सौंपना चाहती है। लेकिन इक्वेडोर के शरण देने की वजह से वे अभी तक बचे हुए हैं। असांजे स्वीडन जाने का विरोध कर रहे हैं। उनका आरोप है कि स्वीडन में उनके खिलाफ यौन शोषण का आपराधिक मुकदमा एक बहाना है। वहां की सरकार उन्हें अमरीका को सौंप देगी। अमरीका के हाथ पडऩे पर वे जीवित नहीं बचेंगे। इस आशंका के चलते वे दूतावास से बाहर नहीं निकल रहे हैं। अमरीका, स्वीडन और ब्रिटेन सहित दुनिया भर में असांजे के समर्थक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उनकी लड़ाई में उनका समर्थन कर रहे हैं।

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