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प्रेस परिषद ने निराश ही किया

भारतीय प्रेस परिषद अपनी भूमिका नहीं निभा पा रही थी, इसीलिए मीडिया जगत में उसे एक निष्प्रभावी संस्था के तौर पर देखा जाता रहा है। अलबत्ता न्यायमूर्ति काटजू ने उम्मीद जगाई थी कि परिषद लीक से हटकर कुछ कर पाएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यह निराशाजनक है। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनुसार, प्रेस परिषद एक निष्प्रभावी संस्था है, जिसे बंद कर दिया जाना चाहिए।



भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष बनने के तुरन्त बाद न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू ने प्रेस परिषद को अधिकार-सम्पन्न बनाने की बात कही थी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में काटजू ने कहा कि कानून की धारा 14 (1) के तहत परिषद को प्राप्त अधिकार नाकाफी है। इसके चलते प्रेस परिषद अपना कार्य प्रभावी तरीके से नहीं कर पा रही है। अपने बयानों और भाषणों में उन्होंने यही दोहराया— भय बिनु होई न प्रीति। ऐसे में उनसे उम्मीद थी कि वे प्रेस परिषद को एक ताकतवर संस्था बना पाएंगे। उनके आक्रामक तेवर और अंदाज से लगा कि वे जरूर कुछ करेंगे। लेकिन भारतीय प्रेस परिषद की अब तक की कार्यशैली ने ऐसा कुछ नहीं जताया, जैसा काटजू कहते रहे हैं।
प्रेस परिषद अपने ढर्रे से कुछ भी अलग करती नजर नहीं आ रही है। बल्कि यह कहूं कि प्राप्त अधिकारों का भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं कर पा रही, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रेस परिषद पूर्व की भांति ही एक निष्प्रभावी संस्था बनी हुई है। वह न तो प्रेस की स्वतंत्रता में बाधक बनने वाली राज्य सरकारों के खिलाफ कुछ कर पा रही है और न ही आदर्श आचरण संहिता का उल्लंघन करने वाले अखबारों-पत्रकारों के खिलाफ कोई ठोस कदम उठा पा रही है। पत्रकारों पर हमले और उत्पीडऩ को रोकने में भी इसकी कोई कारगर भूमिका नजर नहीं आ रही है। हो सकता है, प्रेस परिषद के वर्तमान अध्यक्ष यह तर्क दें कि जब तक केन्द्र सरकार परिषद को शक्तियां नहीं देती, तब तक परिषद प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगी। लेकिन फिलहाल बड़ा सवाल यह है कि प्रेस परिषद अपने मौजूदा अधिकारों का ही इस्तेमाल नहीं कर पा रही हो, तो क्या कहा जाए?
प्रेस परिषद कानून-१९६५ के अनुसार परिषद के कार्य और उद्देश्यों में अखबारों की स्वतंत्रता कायम रखने में मदद करना तथा अखबारों-पत्रकारों के लिए आदर्श आचरण संहिता लागू करना प्रमुख रूप से शामिल है। देश में पिछले दो-तीन माह के प्रेस-जगत के घटनाक्रम के संदर्भ में अगर प्रेस परिषद की भूमिका का आकलन किया जाए, तो निराशा ही होती है।
फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। कई अखबारों पर धन लेकर खबरें प्रकाशित करने (पेड न्यूज) के आरोप लगे। अखबारों की ओर से सरेआम खबरों के पैकेज निर्धारित किए गए। 'पेड न्यूज' के जरिए मतदाताओं को भ्रमित करने वाले विज्ञापन समाचारों की शक्ल में छपे। लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका को शर्मसार करने वाली इन कारगुजारियों में कई पत्रकार भी शामिल थे। केन्द्रीय चुनाव आयोग ने तो 'पेड न्यूज' के लिए 167 उम्मीदवारों को नोटिस जारी किए। लेकिन प्रेस परिषद की ओर से न तो अखबारों और न ही पत्रकारों के खिलाफ कोई कार्रवाई सामने आई। यही नहीं गत लोकसभा चुनावों में 'पेड न्यूज' की शिकायतों की जांच के लिए प्रेस परिषद की ओर से गठित समिति की रिपोर्ट भी अब तक धूल फांक रही है। इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते से निकालने की कोई कोशिश नजर नहीं आई है। इसी तरह थल सेनाध्यक्ष की प्रधानमंत्री को लिखी गई गोपनीय चि_ी का प्रकाशन मीडिया की चौतरफा आलोचना का कारण बना था, लेकिन सनसनी फैलाने वाली खबरों का प्रकाशन करने वाले अखबारों के खिलाफ परिषद ने कुछ नहीं किया।
विभिन्न प्रदेशों में राज्य सरकारें अपने खिलाफ लिखने वाले समाचार पत्रों की आवाज को किस तरह दबाती हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। तमिलनाडु में मनमाने तरीके से पत्रकारों के अधिस्वीकरण रद्द कर दिए जाते हैं, तो छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार अखबारों के विज्ञापन बंद कर देती है। ये हाल ही के उदाहरण हैं। पत्रिका का मामला सामने है। भ्रष्टाचार और अवैध खनन ने राज्य को खोखला कर दिया। अखबार ने जब सरकार  में उच्च स्तर पर लिप्तता को तथ्यों के साथ उजागर किया, तो भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए प्रतिबद्धता का दावा करने वाली सरकार ने अखबार के विज्ञापन ही बंद करके उसकी आवाज दबाने की कोशिश की। किस कानून के तहत राज्य सरकार ने यह दमनकारी रवैया अपनाया — कोई उससे पूछने वाला नहीं है। प्रेस परिषद भी नहीं। क्या छत्तीसगढ़ में सरकार का यह रवैया अखबार की स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर कुठाराघात नहीं है?
राज्य सरकारें प्रेस के प्रति जहां सहिष्णुता खोती जा रही हैं, वहीं सम्पूर्ण मीडिया के प्रति तानाशाही तरीके अख्तियार कर रही है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सरकारी पुस्तकालयों में पाठकों की मांग के अनुरूप अखबार खरीदने पर ही रोक लगा दी। अब इन पुस्तकालयों के लिए कुछ चुनींदा अखबार तय कर दिए गए हैं। पाठक चाहकर भी इन पुस्तकालयों में अपना पसंदीदा अखबार नहीं पढ़ सकता। क्या ऐसे मामलों में प्रेस परिषद की कोई भूमिका नहीं बनती है?
पत्रकारों का उत्पीडऩ और उन पर जानलेवा हमले निश्चित ही कानून व्यवस्था का मसला है, लेकिन प्रेस परिषद इन मामलों में प्रभावी हस्तक्षेप से बच नहीं सकती। देश के उत्तरी पूर्वी राज्यों, खासकर मणिपुर में पत्रकारों को किस तरह बंदूक के खौफ के साये में काम करना पड़ रहा है; इसका बयान कुछ समय पूर्व वहां के एक पत्रकार ने दिल्ली में किया था। इम्फाल फ्री प्रेस के प्रदीप फैंजोबम का 'द हिन्दू' ने साक्षात्कार प्रकाशित किया, जिसमें प्रदीप ने मणिपुर सहित उत्तर पूर्वी राज्यों में पत्रकारों के सामने पेश आ रहे कठिन हालात का ब्यौरा पेश किया था। यह उल्लेखनीय बात है कि उग्रवादी हमलों में वहां कई पत्रकार अपनी जान गंवा चुके हैं। वहां अखबारों की आवाज को खौफ और आतंक से दबाने की कोशिशें की जा रही हैं। क्या इन हालात में प्रेस परिषद की कोई भूमिका नहीं बनती है? क्या उसे खामोश रहना चाहिए? एक दुखद घटनाक्रम है, पिछले दिनों मध्य प्रदेश में खनन माफिया की पोल खोलने की कोशिशों में पत्रकार चन्द्रिका राय को जो कीमत चुकानी पड़ी, वह भयावह थी। रॉय को पूरे परिवार सहित खत्म कर दिया गया।
कह सकते हैं ये मामले कानून-व्यवस्था से जुड़े हैं और इनका प्रेस की स्वतंत्रता और नियमन से कोई सीधा वास्ता नहीं। लेकिन गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे, तो ये मामले प्रेस की आजादी से जुड़े हुए हैं। किसी भी तरह के भय व दमन तथा सरकारी पक्षपात व प्रलोभन के माहौल में स्वतंत्र प्रेस सांस नहीं ले सकती। स्वतंत्रता के बिना प्रेस पर किसी तरह के नियमन की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। भारतीय प्रेस परिषद इन मामलों में अपनी कोई भूमिका नहीं निभा पा रही थी, इसीलिए मीडिया जगत में उसे एक निष्प्रभावी संस्था के तौर पर देखा जाता रहा है। अलबत्ता न्यायमूर्ति काटजू ने उम्मीद जगाई थी कि परिषद लीक से हटकर अब कुछ कर पाएगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यह निराशाजनक है। भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के अनुसार प्रेस परिषद एक निष्प्रभावी संस्था है, जिसे बंद कर दिया जाना चाहिए। प्रेस परिषद के बारे में कई मीडिया विशेषज्ञ और जानकार भी यही राय व्यक्त कर चुके हैं। अगर भारतीय प्रेस परिषद अपनी भूमिका का सही तौर पर निर्वाह करे तो शायद ऐसी टिप्पणियों की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि मेरी राय में प्रेस परिषद का औचित्य और उपयोगिता है। प्रेस परिषद अधिकार-सम्पन्न तो हो ही, साथ ही प्राप्त अधिकारों का प्रेस के व्यापक हित में इस्तेमाल करने की इच्छाशक्ति से भी सम्पन्न हो।

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1 comments:

Arun sathi said...

एक दम सही विश्लेषण किया है आपने, सच भी यही है।