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तानाशाहों जैसा अंकुश!

सरकारें सहिष्णुता खो चुकी हैं। कहीं अखबार के सभी सदस्यों पर विधानसभा में प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है, कहीं पत्रकारों का अधिस्वीकरण रद्द कर दिया जाता है। विज्ञापन बन्द करना तो रोजमर्रा का शगल हो गया है। दमन का ऐसा स्वरूप पहले नहीं देखा। राजनेताओं की ऐसी पूरी जमात दब्बू और भीरू है, आलोचना का सामना नहीं कर सकती।

सत्यजित राय की मशहूर फिल्म 'सोनार किला' की कहानी मुकुल धर नामक एक पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है। इसी मुकुल को प्रतीक बनाकर रचा गया एक कार्टून-चित्र बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को नागवार गुजरा। इतना कि रसायन शास्त्र के एक प्रोफेसर सहित दो जनों को रात भर जेल की हवा खानी पड़ी। प्रोफेसर को ममता के उग्र समर्थकों से पिटना पड़ा, सो अलग। पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी, वर्तमान रेल मंत्री मुकुल रॉय और ममता बनर्जी को लक्षित करके यह कार्टून बनाया गया था। इस कार्टून के राजनीतिक आशय से सभी वाकिफ हैं और 'सोनार किला' के कथा-संदर्भ से भी। मुकुल के साथ ही सत्यजित राय ने फेलुदा, डा. हाजरा, जटायू, बर्मन और बोस जैसे पात्रों की रचना की थी, जो आज भी बंगाली सिनेमा के दर्शकों में खासे लोकप्रिय हैं। इसलिए कार्टून असरकारी था। फिर भी यह इतनी चर्चा में नहीं आता जितना इसे ममता बनर्जी ने बना दिया। कार्टून को बनाने वाले और उसे ई-मेल के जरिए दूसरों तक पहुंचाने वाले दो प्रोफेसरों को गिरफ्तार करके उन्होंने बड़ी भूल की। मीडिया, राजनीतिक दलों, लेखकों, पत्रकारों व बुद्धिजीवियों सहित अनेक लोगों ने इसे अभिव्यक्ति पर सीधे-सीधे ममता बनर्जी सरकार का हमला करार दिया। प्रिन्ट, इलेक्ट्रानिक व सोशल मीडिया में यह एक बड़ा मुद्दा बन गया। आज ममता बनर्जी को स्वतंत्र अभिव्यक्ति और मीडिया के विरोधी के तौर पर देखा जा रहा है। हाल ही में उनके कुछ निर्णय और बयानों को देखें तो इसकी पुष्टि भी होती है।
आजाद और लोकतांत्रिक भारत में शायद ही किसी सरकार ने राज्य के सभी सरकारी पुस्तकालयों के लिए किसी अखबार पर रोक लगाई होगी। जो किसी ने नहीं किया वह पिछले दिनों ममता बनर्जी की सरकार ने प. बंगाल में किया। सरकार ने फरमान जारी किया कि पुस्तकालय केवल वे ८ अखबार ही खरीदेंगे जिनकी राज्य सरकार ने मंजूरी दी है। बाद में इस सूची में ५ अखबार और जोड़े गए। आश्चर्यजनक रूप से हिन्दी का केवल एक अखबार शामिल किया गया, जबकि कोलकाता में हिन्दी के कई अखबार जनता में लोकप्रिय हैं। जाहिर है, सरकार ने एक-दो को छोड़कर अधिकांश चहेते अखबारों को ही मंजूरी दी जो उसका गुणगान करते रहते हैं। सरकार की आलोचना करने वाले अखबारों को पास में फटकने तक नहीं दिया। इस बात की पुष्टि कुछ दिनों बाद इनमें से कुछ अखबार के मालिक-सम्पादकों को राज्य सभा की सदस्यता से उपकृत करके सरकार ने स्वत: ही कर दी। राज्य सरकारों का यह रवैया घोर आपत्तिजनक है। तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ में सरकारों का रवैया पत्रिका के प्रति सर्व विदित है। पत्रिका पाठकों की आवाज मुखरित करता है जो कई सरकारों को रास नहीं आ रहा।
सवाल है, अखबार सरकार के लिए निकलते हैं या पाठकों और आम जनता के लिए। सरकारें सहिष्णुता खो चुकी हैं। कहीं अखबार के सभी सदस्यों पर विधानसभा में प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है, कहीं पत्रकारों का अधिस्वीकरण रद्द कर दिया जाता है। विज्ञापन बन्द करना तो रोजमर्रा का शगल हो गया है। दमन का ऐसा स्वरूप मीडिया के अधुनातन साधनों के विकास के इस दौर में संभव है, यह सोचना बड़ा अजीब लगता है। लेकिन स्पष्ट है कि राजनेताओं की ऐसी पूरी जमात दब्बू और भीरू है, आलोचना का सामना नहीं कर सकती, जनता के प्रति अपनी जवाबदेही से कन्नी काटना चाहती है।
प्रो. अंबिकेश की गिरफ्तारी की जब चारों तरफ आलोचना होने लगी तो ममता बौखला गईं। इसके बाद लगातार वे गलतियां करती जा रही हैं। वे मीडिया पर बरस रही हैं और अजीबो-गरीब बयान दे रही हैं। उनके इस बयान से तो हर कोई चौंका। जब उन्होंने २४ परगना जिले में एक सभा को सम्बोधित करते हुए जनता को यह विचित्र सलाह दी कि वे न्यूज चैनल की बजाय मनोरंजन चैनल ही देखें। शुक्र है, ममता ने अखबारों को लेकर यह सलाह नहीं दी कि लोग अखबार पढऩा छोड़ दे। या फिर उनमें फीचर, कहानियां और मनोरंजक सामग्री ही पढ़ें, खबरों के पृष्ठ पढऩा छोड़ दें। यह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तानाशाहों जैसा अंकुश है। आपातकाल का मीडिया विरोधी स्वरूप भी प. बंगाल के हालात के आगे बौना दिखने लगा। लगता है ममता की सरकार यशोगाथा के अतिरिक्त कुछ देखना-सुनना ही नहीं चाहती।
ममता ने अब एक नई घोषणा की है। प. बंगाल में सरकार अपना अखबार और न्यूज चैनल चलाएगी। जिस मंशा और उद्देश्य को लेकर यह घोषणा की गई वह सवाल खड़े करती है। पश्चिम बंगाल में भी अन्य राज्यों की तरह निजी क्षेत्र के कई प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर के अखबार व चैनल्स हैं जो बांगला सहित अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू आदि अनेक भाषाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता का एक बड़ा वर्ग इनसे जुड़ा हुआ है। ऐसा नहीं है कि ये सरकार की उपलब्धियों को जनता के सामने नहीं लाते। उपलब्धियों के साथ ही वे सरकार की कमियां भी उजागर करते हैं। यही प. बंगाल सरकार को नागवार गुजर रहा है। उसका मानना है कि मीडिया जनता में उसकी नकारात्मक छवि पेश कर रहा है। सो सरकार की सकारात्मक छवि के लिए जनता पर सरकारी मीडिया का बोझा डाला जाएगा। आखिर इस 'सकारात्मक' छवि के क्या मायने है? क्या इसका मतलब यह है कि सामूहिक दुराचार से पीडि़त एक महिला की शिकायत को सरकार फर्जी बताकर रद्द कर दे और जब सरकार की ही एक महिला पुलिस अधिकारी दुराचारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा ले तो उसका तबादला कर दिया जाए? उस पर तुर्रा यह कि मीडिया इस समूचे प्रकरण से आंख मूंद ले ताकि सरकार की 'सकारात्मक' छवि बनी रहे? आजाद भारत के ये अपूर्व घटनाक्रम हैं।
एक मुख्यमंत्री के तौर पर ममता बनर्जी में सहनशीलता का सर्वथा अभाव है। अभी तो उन्हें इस पद पर एक साल भी पूरा नहीं हुआ है। पता नहीं पश्चिम बंगाल की जनता को एक तुनकमिजाज नेता के तुगलकी फरमानों को कब तक बर्दाश्त करना होगा। लेकिन जनता अपना दायित्व जानती-समझाती है, हिसाब भी वही करेगी।

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