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आरक्षण बनाम वोट की राजनीति

केन्द्र सरकार ने अल्पसंख्यकों को नौकरियों में 4.5 फीसदी आरक्षण का ऐलान किया है। यह आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग को मिल रहे 27 फीसदी आरक्षण के भीतर ही दिया जाएगा। प्रचार किया जा रहा है, मानो सभी अल्पसंख्यकों का उत्थान कर दिया गया हो। क्या सचमुच उनका भला होगा? और क्या सत्तारूढ़ दल इन चुनावों में राजनीतिक लाभ हासिल कर पाएगा? इन्हीं प्रश्नों पर केन्द्रित है, इस बार की 'अपनी बात।' 

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले केन्द्र सरकार ने अल्पसंख्यकों को नौकरियों में 4.5 फीसदी आरक्षण का ऐलान कर दिया। गौरतलब है अल्पसंख्यकों को आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग को मिल रहे 27 फीसदी आरक्षण के भीतर ही दिया जाएगा।
प्रिय पाठकगण! अल्पसंख्यक पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान पहले से ही मौजूद है। सरकार ने नई घोषणा में अब एक निश्चित सीमा (4.5 फीसदी) तय की है। लेकिन प्रचार किया जा रहा है, मानो समस्त अल्पसंख्यकों का उत्थान कर दिया गया हो। सत्तारूढ़ ही नहीं, अन्य दल भी वोट-बैंक राजनीति का लाभ हासिल करने की कोशिशों में जुट गए हैं। सवाल है, क्या सचमुच इस फैसले से अल्पसंख्यकों का भला होगा? और यह भी कि क्या सत्तारूढ़ दल इस घोषणा से राजनीतिक लाभ हासिल कर पाएगा? अन्य पिछड़ा वर्गों में क्या प्रतिक्रिया होगी? आखिर सभी दल मिलकर आरक्षण की राजनीति से कहां ले जाएंगे इस देश को? आरक्षण सामाजिक न्याय के लिए है या नेताओं की कुर्सी के लिए? इन्हीं प्रश्नों पर केन्द्रित है, इस बार की 'अपनी बात'-
जयपुर से अभय कुमार भटनागर ने लिखा— 'अल्पसंख्यकों को 4.5 फीसदी आरक्षण समाचार (पत्रिका : 23 दिसंबर) पढ़ा तो लगा सरकार ने अल्पसंख्यकों की खातिर बड़ा फैसला किया है। लेकिन पूरा ब्यौरा पढ़ा तो हकीकत सामने आई। अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिम लगभग शत-प्रतिशत पिछड़े हैं। सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टें इसका जीता-जागता प्रमाण हैं। ऐसे में समस्त अल्पसंख्यक जिनमें सिख, बौद्ध, ईसाई, पारसी आदि शामिल हैं, के लिए 4.5 फीसदी आरक्षण से क्या होगा? साफ है, यह फैसला यूपी चुनाव के मद्देनजर किया गया है, जहां मुस्लिम अल्पसंख्यकों की तादाद ज्यादा है। लेकिन न तो यूपी और न ही अन्य प्रदेशों के अल्पसंख्यक मुस्लिमों को इससे कोई खास फायदा होगा।'
आगरा से मोहम्मद रफीक भाटी ने लिखा— 'उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यकों को इस फैसले से नुकसान होगा। यहां के पिछड़े मुस्लिम अन्य पिछड़े वर्गों से ज्यादा जागरूक हैं। वे अब तक २७ फीसदी कोटे का लाभ उठाते रहे हैं। अब उनके लिए यह अवसर महज 4.5 फीसदी तक सिमट गया है।'
इंदौर से अयूब खान ने लिखा— 'उत्तर प्रदेश की 120 सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक असर रखते हैं। इसलिए सभी पार्टियां चुनाव में इनको लुभाना चाहती हैं। मायावती ने मुस्लिम आरक्षण के लिए प्रधानमंत्री को चिट्ठी
लिखी थी, जिसका मीडिया में खूब प्रचार किया गया था। यूपीए को लगा कहीं वह पीछे नहीं रह जाए। अब बसपा व कांग्रेस दोनों दल आरक्षण की घोषणा का श्रेय ले रहे हैं। इधर मुलायम सिंह स्वयं को सबसे बड़ा मुस्लिमों का हितैषी बताते हैं। लेकिन हकीकत में यूपी में इन तीनों में से किसी ने मुस्लिमों का भला नहीं किया। तीनों का राज हमने देख लिया।'
कोटा से स्वप्निल जोशी ने लिखा— 'भले ही 27 फीसदी में से अल्पसंख्यकों को आरक्षण दिया गया है, लेकिन आरक्षण का आधार धर्म से निर्धारित है। सरकार का तर्क  है अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने मंडल फार्मूले के तहत इस आरक्षण की सिफारिश की थी। मंडल आयोग ने देश की आबादी का 52 फीसदी हिस्सा अन्य पिछड़ा वर्ग का माना था, न कि हिन्दू आबादी का। आबादी में सभी धर्म और सम्प्रदाय शामिल हैं। पर सरकार ने अल्पसंख्यकों को अलग करके मंडल आयोग की एक नई व्याख्या ही पेश कर दी। इस तरह सरकार ने स्वयं ही संविधान का उल्लंघन करने का कृत्य किया है जिसमें धर्म आधारित आरक्षण की साफ मनाही है।'
उदयपुर से दीपक राजौरिया ने लिखा— 'ओबीसी वर्ग को इस आरक्षण से काफी नुकसान होगा। सरकार राजनीति के स्वार्थवश ओबीसी के निर्धारित कोटे में सेंध लगा रही है। यह ओबीसी वर्ग को कतई मंज़ूर नहीं होगा।'
ग्वालियर से रवि सिंघल ने लिखा— 'कांग्रेस को इसका राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम दूध का दूध और पानी का पानी कर देंगे।'
मंदसौर से रमेश जायसवाल ने लिखा— 'आरक्षण का राजनीतिक इस्तेमाल बंद होना चाहिए। जब तक ऐसा होता रहेगा, आरक्षित जातियों का कोई कल्याण नहीं होगा। इनमें केवल क्रीमीलेयर मलाई खाता रहेगा।'
अजमेर से जे.पी. रावत ने लिखा— 'आरक्षण का वास्तविक हिस्सा तो प्रभुत्वकारी लोग ही हड़पते रहे हैं। इन्हीं लोगों की साजिश के चलते क्रीमीलेयर को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है। अभी 4.50 लाख रुपए वार्षिक वेतन वाला क्रीमीलेयर की श्रेणी में माना जाता है। अब सीमा बढ़ाकर 9 लाख और मैट्रो शहरों में 12  लाख करने की कोशिश की जा रही है। कोई राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से पूछे कि प्रतिमाह एक लाख रु. कमाने वाला भी अगर पिछड़ा है तो देश के आम आदमी में ऐसा कौन बचा है, जिसे आरक्षण की जरूरत नहीं होगी।'
जोधपुर से यमुना शंकर पुरोहित ने लिखा— 'सरकारों पर आरक्षण का राजनीतिक लाभ इतना हावी है कि न्याय-अन्याय और कानून संविधान सबकी गरिमा भुलाई जा रही है। राजस्थान सरकार पदोन्नति में आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना कर रही है। हाईकोर्ट के बार-बार निर्देशों के बावजूद उसने कानों में रुई ठूंस रखी है।'
जबलपुर से मनमोहन विश्वास ने लिखा— 'डेढ़ वर्ष पूर्व 109 वां संविधान संशोधन करके हमने आरक्षण का विशेष प्रावधान 10 वर्ष के लिए फिर बढ़ाया। संविधान निर्माताओं ने 10 साल के लिए इसका प्रावधान किया था। लेकिन 6 बार आरक्षण की अवधि बढ़ाने के बावजूद पिछले 60 वर्षों में भी हम आर्थिक उत्थान और सामाजिक समानता का लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए। यह लक्ष्य राजनीतिक दल कभी हासिल होने ही नहीं देंगे। अगर ऐसा हो गया तो नेता लोग आरक्षण के नाम पर वोट कैसे बटोरेंगे!'
प्रिय पाठकगण! राजनीतिक दल व नेता आरक्षण के नाम पर वोट मांगे जरूर, परन्तु चुने जाने के बाद पिछड़ों को भूल जाने की भूल बार-बार नहीं दोहराएं। राजनेताओं को रास आने वाली इसी 'भूल' का परिणाम है कि पिछड़ा वर्ग आर्थिक व सामाजिक समानता का लक्ष्य अब तक हासिल नहीं कर पाया है।   

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