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आयकर वसूली

  • क्या भारत में व्यक्तिगत आयकर की वसूली खत्म कर देनी चाहिए?
  • क्या मौजूदा आयकर प्रणाली देश के सभी आयकरदाताओं के साथ समान रूप से न्याय करती है?
  • क्या काले धन की समस्या की मुख्य वजह आयकर ढांचे की विसंगतियां हैं?
प्रिय पाठकगण!  इस बार पाठकों की बहस इन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित है। पाठकों ने अपने विचार 'नहीं वसूला जाए आयकर' (पत्रिका: 24 जुलाई 2011) के संदर्भ में व्यक्त किए हैं। यह रविवारीय आवरण-कथा भारत में आयकर के 150 वर्ष के अवसर पर प्रकाशित की गई थी। ज्यादातर पाठकों ने जहां व्यक्तिगत आयकर वसूली को खत्म करने के विचार का समर्थन किया है, वहीं कई पाठक आयकर ढांचे को अधिक न्याय संगत बनाने के पक्षधर हैं।
जयपुर से जी.सी. श्रीवास्तव ने लिखा- 'आयकर का सिद्धान्त है- ज्यादा कमाने वाले से ज्यादा कर और कम कमाने वाले से कम कर, लेकिन बिल्कुल उल्टा हो रहा है। हमारी वर्तमान आयकर प्रणाली छोटे, मध्यम नौकरीपेशा वर्ग से तो पाई-पाई वसूल कर लेती है, लेकिन काली कमाई करने वाले बड़े 'मगरमच्छों' के सामने लाचार नजर आती है। हां, बीच-बीच में जो छापामारी की कवायद दिखाई पड़ती है- वह जनता की आंखों में धूल झोंकने के सिवाय कुछ नहीं। हकीकत में छापे की ये कार्रवाइयां भारत जैसे विशाल देश में काली कमाई के महासागर में बुलबुले के समान हैं। जो 728 खरब रुपए का कालाधन अब तक विदेशी बैंकों में जमा हो चुका है, वह इस सच्चाई को प्रमाणित करने के लिए काफी है। ये आंकड़े भारत में आयकर के 150 साल के इतिहास के नहीं हैं, बल्कि 1961 का आयकर कानून बनने के बाद के हैं। इसमें भी ज्यादातर काली कमाई पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के दौरान जमा की गई।'
इंदौर से अरुण सनोलिया ने लिखा-'नौकरीपेशा छोटे आयकरदाताओं के साथ आयकर पद्धति न्याय नहीं करती। इसलिए इस वर्ग के लिए आयकर एक अनचाहा उत्तरदायित्व बन गया है। पन्द्रह से पच्चीस हजार मासिक वेतन पाने वाला देश में बहुत बड़ा तबका है। यह तबका महंगाई और दूसरे आर्थिक दबावों से त्रस्त है। इन दबावों के चलते इसे कई सामाजिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। कर्ज और समस्याओं से घिरे व्यक्ति को अपने अल्प वेतन का भी कुछ हिस्सा कर के रूप में चुकाना पड़ता है। दूसरी तरफ उससे अधिक कमाने वाले गैर वेतन भोगी को जब वह मजे से कर चोरी करते पाता है, तो मन मसोस कर रह जाता है।'
भोपाल से रवि कौशिक ने लिखा- 'मुझे बहुत कोफ्त होती है, जब हमारे खून-पसीने की कमाई से वसूले गए कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्ट नेता और अफसर एक झटके से घोटालों में हड़प जाते हैं।
जोधपुर से श्याम सुन्दर ओझा ने लिखा-'आयकर में स्लैब व्यवस्था न्यायपूर्ण नहीं है। 8 लाख रुपए कमाने वाला भी 30 प्रतिशत कर चुकाए और 80 लाख कमाने वाला भी 30 प्रतिशत ही चुकाए, यह उचित नहीं। ऐसे प्रावधान लोगों को कर चोरी के लिए मजबूर करते हैं।
जबलपुर से बी.के. पटेल ने लिखा- 'आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2010-11 में देश को आयकर से कुल 4 लाख 46 हजार करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त हुआ। हालांकि देश का आकार और क्षमता को देखते हुए यह राशि बहुत कम है, लेकिन यह सच्चाई है कि यह राशि हमारे सकल राजस्व में 35 फीसदी की हिस्सेदारी निभाती है। दूसरी सच्चाई यह भी है कि करीब साढ़े चार लाख करोड़ रुपए के आयकर राजस्व में निगम कर और धन कर को छोड़ दें तो व्यक्तिगत आयकर का योगदान सिर्फ डेढ़ लाख करोड़ रुपए है, जबकि 2जी घोटाला 1.76 लाख करोड़ का है। और कई घोटालों में कई लाख करोड़ का भ्रष्टाचार सामने आ चुका है। यह धन देश के नागरिकों से वसूला गया टैक्स है, जिससे कम से कम व्यक्तिगत आयकरदाताओं को तो मुक्त रखा ही जा सकता है।'
रायपुर से राजेन्द्र साहू ने लिखा-'एक तरफ छोटे करदाताओं पर बोझ लादा जाता है, दूसरी तरफ बड़े आयकरदाताओं को आयकर संबंधी कई माफी योजनाओं के जरिए लाभ पहुंचाया जाता है। इससे काला धन जमा करने वालों को ही प्रोत्साहन मिलता है। यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि भारत सरकार ने 2005-06 से 2010-11 के बीच कॉरपोरेट जगत को 3 लाख 74 हजार 937 करोड़ रुपए की कर माफी दी। दूसरी तरफ हम किसानों और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को सरकारी अनुदानों को हड़पने का दोषी ठहराते हैं। आर्थिक सिद्धान्तों के ये दोहरे मापदंड क्यों?'
उदयपुर से अंकित सामर ने लिखा- 'देश के कुल राजस्व में आयकर की हिस्सेदारी को खत्म कर दिया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था को ऐसा तगड़ा झटका लगेगा कि हम संभल नहीं पाएंगे। आयकर खत्म करने की बजाय आयकर तंत्र को सुधारने की ज्यादा जरूरत है।'
बीकानेर से मिथिलेश गुप्ता ने लिखा- 'आयकर का ढांचा इतना सुसंगत हो कि किसी को भी यह बाध्यकारी कानून की बजाय एक नैतिक और जरूरी नागरिक उत्तरदायित्व लगे।'
प्रिय पाठकगण! यह सही है कि आयकर के संदर्भ में अर्थशास्त्रियों व विशेषज्ञों की राय महत्वपूर्ण है। आयकर की अवधारणा, महत्व और उद्देश्य को वे अच्छी तरह परिभाषित कर सकते हैं। आयकर कानून यही इंगित करता है, लेकिन आयकरदाता और आम नागरिकों का दृष्टिकोण भी कम मायने नहीं रखता। आयकर की विसंगतियों को लोगों के अनुभवों से ही परिमार्जित किया जा सकता है। बेहतर होगा, कर नीतियों-खासकर व्यक्तिगत आय कर के मामले में जनता के विचारों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

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