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बेदाग हो छवि


इंदौर से श्याम नारायण निगम ने लिखा- 'सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मेरा अनुमान पुख्ता यकीन में बदलता जा रहा है। मेरे जेहन में यह सवाल था कि आखिर सरकार ने एक दागी व्यक्ति को देश का केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) बनाया ही क्यों था? जरूर इनमें से कोई एक वजह रही होगी-
  1.  सरकार पी.जे. थॉमस को उपकृत करना चाहती थी?
  2.  या उसकी कोई राजनीतिक मजबूरी थी?
  3. या फिर सरकार की सोची-समझी रणनीति थी?
थॉमस पर सरकार की मेहरबानी की मुझे कोई खास वजह नजर नहीं आती। वह पामोलिन घोटाले में फंसे थे। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी उनकी नियुक्ति के विरोध में थीं। गठबंधन राजनीति की कोई मजबूरी भी सामने नहीं आई। न ही थॉमस की नियुक्ति में करुणानिधि का कोई दबाव नजर आया। फिर क्यों एक शक्तिशाली पद पर ऐसे व्यक्ति को बिठा दिया जो सरकार की फजीहत का सबसे बड़ा कारण बन गया। सरकार की दलीलें और मीडिया में उजागर हुए तथ्यों से यह साफ लगता है कि पी.जे. थॉमस की सीवीसी पद पर नियुक्ति सरकार की एक सोची-समझी रणनीति थी। घोटालों से घिरती सरकार के लिए शायद थॉमस सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे। आखिर एक दागी व्यक्ति ही दूसरे दागी को बचा सकता है। लेकिन हाय! सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया! अब कुछ नहीं हो सकता। काठ की हांडी दुबारा आंच पर नहीं चढ़ सकती।'
  प्रिय पाठकगण! आप जानते हैं, देश में भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग गठित है। पूर्व में आयोग ने भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर किए हैं। लेकिन पी.जे. थॉमस की नियुक्ति के बाद इस संवैधानिक संस्था पर अंगुलियां  उठीं और मामला सर्वोच्च अदालत में गया। अदालत ने पिछले दिनों अपने फैसले में थॉमस की नियुक्ति को अवैध ठहराया। इससे पहले सरकार थॉमस की नियुक्ति को उचित बताते हुए लगातार उनका बचाव कर रही थी। बल्कि न्यायपालिका को प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करने की सलाह भी दे रही थी। इस सारे प्रकरण पर पाठकों की क्या प्रतिक्रिया है, आइए जानते हैं।
जयपुर से हिमांशु थपलियाल ने लिखा- 'भ्रष्टाचार के मामलों को सामने लाने में पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्तों ने शानदार भूमिका निबाही थी। एन. विट्ठल ने चार हजार से अधिक भ्रष्ट आईएएस, आईपीएस अफसरों तथा कई बड़े राजनेताओं के नाम आयोग की वेबसाइट पर डालकर भूचाल ला दिया था। उनके बाद आए मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा ने कॉमनवैल्थ खेलों में घोटालों की परतें उधेड़ कर रख दी थीं। लेकिन पी.जे. थॉमस की नियुक्ति के बाद आयोग का रुतबा फीका पड़ गया।'
कोटा से मीता श्रीवास्तव ने लिखा- 'सामाजिक संस्था सेंटर फॉर लिटीगेशन' जिसमें पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम. लिंगदोह सहित देश की नामी शख्सियतें शामिल हैं, ने अगर थॉमस की नियुक्ति को अदालत में चुनौती नहीं दी होती तो वे शायद आयोग में मजे से बैठकर भ्रष्टाचारियों को क्लीन चिट दे रहे होते।'
जबलपुर से गौतम रस्तौगी ने लिखा- 'अफसोस कि सरकार ने उस व्यक्ति को भ्रष्टाचारियों पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया जो खुद भ्रष्टाचार के आरोप से घिरा था। इससे भी ज्यादा अफसोस इस बात का है कि उसकी नियुक्ति ऐसे प्रधानमंत्री के हाथों से हुई जो अपनी बेदाग और स्वच्छ छवि के लिए जाने जाते हैं।'
बेंगलुरू से रमेश एस. राजपुरोहित ने लिखा- 'थॉमस प्रकरण में प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि भी धूमिल हुई है। वे यही कहते रहे कि थॉमस पर आरोप की उन्हें जानकारी नहीं थी। लेकिन मीडिया में हाल ही जिन तीन आधिकारिक पत्रों की खबरें छपी हैं, वे सच्चाई बयान करने के लिए काफी है। इनमें एक पत्र कार्मिक विभाग द्वारा 2008 में तथा दो पत्र केरल सरकार ने 2006 व 2008 में केंद्र को भेजे थे। इनमें थॉमस के खिलाफ मामले की जानकारी दी गई थी। केरल के मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंद ने भी यही बात कही है।'
भोपाल से सौम्य देवसिंह ने लिखा- 'शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में यही कहा कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की छवि बेदाग होनी चाहिए। सीवीसी की नियुक्ति के लिए बने कानून में भी यही बात लिखी है। इसलिए सरकार यह मानते हुए भी कि थॉमस ने पामोलिन घोटाला नहीं किया, उन्हें सीवीसी नहीं बना सकती थी। क्योंकि उन पर आरोप था और वे दोषमुक्त नहीं किए गए थे।'
बीकानेर से कैलाश भटनागर ने लिखा- 'पी.जे. थॉमस पर केवल पामोलिन ऑयल घोटाले का मुकदमा ही नहीं चल रहा बल्कि उन पर टेलीकॉम सचिव के तौर पर २ जी स्पैक्ट्रम घोटाले में ए.राजा की मदद करने का आरोप भी है। इस घोटाले की पोल अब काफी हद तक खुल चुकी है।'
जोधपुर से श्रीगोपाल सोनी ने लिखा- 'जाने-माने पत्रकार राम बहादुर राय ने सही लिखा (पत्रिका: ४ मार्च) कि अदालत ने थॉमस की हेकड़ी निकाल दी। शीर्ष अदालत की तीखी टिप्पणियों के बावजूद थॉमस अड़े रहे। उन्हें नियुक्त करने वाली सरकार की किरकिरी होती रही, लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। वे संवैधानिक पद पर बैठे एक सर्वशक्तिमान हस्ती बनकर इठला रहे थे। इस्तीफा अभी भी उन्होंने नहीं दिया। लेकिन उन्हें अब जाना ही होगा- बे-आबरु होकर।'
अजमेर से दयालचंद्र मीरचंदानी ने लिखा- 'लोकतंत्र में पद, सत्ता और ताकत का नहीं, उत्तरदायित्व का प्रतीक है। लेकिन कई लोग सत्ता के नशे में होश खो बैठते हैं। सुखद बात है कि उन्हें होश में लाने के लिए हमारे पास न्यायपालिका और मीडिया जैसा तंत्र मौजूद है।'

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