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अयोध्या और मीडिया

पिछले साठ साल से चल रहे देश के सबसे संवेदनशील मुकदमे का फैसला आने के बाद भारत में शांति और सदभाव का माहौल देखकर दुनिया के कई देश अचंभित हैं। आखिर यह हुआ कैसे? क्या कट्टरपंथी ताकतें और क्षुद्र राजनीति करने वाली शक्तियां खत्म हो गईं? या जनता की परिपक्व सोच ने इन शक्तियों को खामोश रहने को मजबूर कर दिया? विश्लेषक अपने-अपने निष्कर्ष निकाल रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि शांति का श्रेय देश की जनता को है। लेकिन जनता की सोच को दिशा देने में मीडिया की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही। पाठकों की प्रतिक्रियाओं का यही निचोड़ है।
इंदौर से अवधेश श्रीवास्तव ने लिखा- 'अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का फैसला आने से पहले जितनी आशंकाएं व्यक्त की गई थीं, वे सब निर्मूल सिद्ध हुई। क्या इसलिए कि सरकार ने सुरक्षा की चाक-चौबन्द व्यवस्था कर रखी थी? या इसलिए कि दोनों समुदायों के कट्टरपंथी तत्त्व खामोश रहे? या फिर इसलिए कि इस मुद्दे पर राजनीति करने वाले दलों ने अपना रवैया बदल लिया? मेरी राय में इनमें से किसी को भी अयोध्या फैसले के बाद रही शांति का श्रेय नहीं दिया जा सकता। इसका वास्तविक श्रेय दोनों समुदाय की परिपक्व होती सोच को दिया जाएगा। हालांकि जनता की परिपक्व सोच के कई कारण हैं, लेकिन मुझे इसमें मीडिया का रोल सबसे अहम नजर आता है। अखबारों ने अयोध्या प्रकरण की बहुत सकरात्मक कवरेज की। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी इस बार सराहनीय रोल निभाया। आखिर तथ्यपूर्ण जानकारियों और सदभाव व भाईचारे के सोद्देश्य संदेशों का जनमानस पर असर पड़ता ही है। मुकदमें के कानूनी पहलुओं को सामने रखकर भी एक तरह से मीडिया ने लोगों की जानकारी बढ़ाई।'
जयपुर से दीपेन्द्र सिंह सोलंकी ने लिखा- 'अयोध्या मामले से जुड़ी पिछले दिनों प्रकाशित 'पत्रिका' की सभी खबरें मैंने बहुत गौर से पढ़ीं। मुझे हर समाचार से नई और प्रेरक जानकारियां मिली। इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला आने से काफी पहले (23 सितम्बर) 'पत्रिका' में प्रकाशित 'रिश्तों की नींव बहुत मजबूत' ने मुझे बड़ा प्रभावित किया। कश्मीर से लेकर केरल तक दोनों समुदायों के ऐसे कई धर्मस्थल हैं जहां दोनों धर्मों के लोग समान श्रद्धा भाव से जाते हैं। मुस्लिम होते हुए भी टीपू सुल्तान ने कई वैदिक मंदिर बनवाए। अतीत की बात छोड़ें और आज की नूर फातिमा (पत्रिका 29 सितम्बर 'मंदिर-मस्जिद से बड़ा देश') की बात करें तो वही सदभाव नजर आता है। वाराणसी की नूर फातिमा ने अपने मोहल्ले में शिव मंदिर बनवाया। इसी तरह 'भाईचारे पर नहीं आए आंच' (29 सितम्बर), 'अमन को किसी की नजर न लगे' (30 सितम्बर) तथा 'न जीत न हार' (30 सितम्बर) आदि समाचारों ने भी अयोध्या मामले की वास्तविक स्थिति को समझाने में मेरी बहुत मदद की। देश के युवाओं का दृष्टिकोण (पत्रिका सर्वे 28 सितम्बर) भी पता चला।'
बीकानेर से अब्दुल सलाम भाटी ने लिखा- 'बीकानेर शायद देश में पहला शहर है जहां पाकिस्तान के कायदे आजम जिन्ना के नाम पर सड़क बनी हुई है। यहां की गंगा-जमुनी संस्कृति बहुत मजबूत है। शायद इसीलिए यहां के लोगों ने पिछले दिनों सभी प्रमुख अखबारों और न्यूज चैनल्स के अयोध्या मसले को बहुत गौर से देखा और सकारात्मक कवरेज को सराहा।'
कई पाठकों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में दोनों पक्षों की ओर से अपील करने के निर्णय पर भी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं।
बाड़मेर से तेजसिंह चौधरी ने लिखा- 'उच्च न्यायालय ने न्यायसंगत फैसला किया है, तभी तो पूरे देश ने फैसले का स्वागत किया है पर दोनों तरफ कुछ लोग अपवाद हैं जो अब भी पुराना राग अलाप रहे हैं। उनके लिए गुलाब कोठारी ('राम-ओ-रहीम' 2 अक्टूबर) ने सही लिखा- 'आपको देशवासियों का सम्मान करना चाहिए जिन्होंने किस तरह अपने सब्र का परिचय दिया है। उनकी स्वीकृति के बिना कोर्ट (सुप्रीम कोर्ट) में चुनौती देना वाजिब नहीं कहा जाएगा। क्योंकि आप धर्म या सम्प्रदाय के प्रतिनिधि ही हैं, मालिक नहीं।'
भोपाल से रतिमोहन तिवारी ने लिखा- 'दोनों समुदायों की ओर से मामले की अपील की घोषणा से यह तो जाहिर है कि दोनों पक्षों को सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानना होगा। बातचीत से न सही, न्यायालय से ही सही, इस समस्या का समाधान देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगा।'
झालावाड़ से श्रीमती गायत्री देवी ने लिखा- 'राजनीति वाले आग न लगाएं और मीडिया वाले उसे सुलगने न दें तो अयोध्या प्रकरण के शांतिपूर्ण समाधान को कोई नहीं रोक सकता।'
कोटा से प्रमोद सेन ने लिखा- 'अयोध्या मामले का हल जल्दी निकल आएगा क्योंकि इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के बाद अब यह मुद्दा राजनीतिक दलों और कट्टरपंथी नेताओं के हाथ से निकल चुका है। जरूरत है जनमानस को निरन्तर जागरूक रखने की। यह काम मीडिया बखूबी कर सकता है।'
प्रिय पाठकगण!
मीडिया जनता की ही अभिव्यक्ति है। जनता इस मुद्दे के गुण-दोषों को पहचान चुकी है। अतीत से उसने बहुत कुछ सीखा है, मीडिया ने तो उसे याद भर दिलाया है। 1992 के बाद बहुत समय गुजर चुका है। एक पूरी पीढ़ी (युवा वर्ग) नए सोच और विचार के साथ हमारे सामने है, जिसे अनदेखा करना किसी के लिए आसान नहीं।

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