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अफजल की सजा

क्या अफजल गुरु की दया याचिका को साढ़े चार साल तक इसलिए लटकाया गया ताकि उसकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदला जा सके?

जबलपुर के पाठक आर.सी. अग्निहोत्री ने लिखा, 'सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदण्ड देने के लिए चार साल की समय सीमा तय कर रखी है। सुप्रीम कोर्ट पहले भी दया याचिका में देरी होने पर कुछ अपराधियों की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल चुका है। सुप्रीम कोर्ट इस बात पर जोर देता रहा है कि फांसी की सजा वाले अपराधी को फांसी देने में अत्यधिक विलम्ब से उस पर अमानवीय प्रभाव पड़ता है। ऐसे में वह आजीवन कारावास के रूप में कम कठोर सजा पाने का हकदार बन जाता है। इसी आधार पर विवियन रॉड्रिक्स बनाम प. बंगाल (1971), टी.वी. वथीश्वरन बनाम तमिलनाडु (1983), शेरसिंह बनाम पंजाब (1983), त्रिवेणी बेन बनाम गुजरात (1989) आदि मामलों में शीर्ष अदालत ने मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था। शायद इसीलिए पिछले दिनों अफजल गुरु ने फांसी से बचने का एक नया पैंतरा चला। उसने सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की और कहा, उसकी दया याचिका पर शीघ्र निर्णय हो, उसे इससे मुक्ति चाहिए। अब और इंतजार सहा नहीं जाता। अफजल को मालूम है, उसके मामले में साढ़े चार साल बीत गए जो सुप्रीम कोर्ट की तयशुदा सीमा को लांघ चुके हैं। लिहाजा वह कम कठोर सजा (आजीवन कारावास) पाने का हकदार है।'

पाठक का प्रश्न है, 'आखिर जो काम साढ़े चार साल पहले किया जा सकता था, वह क्यों नहीं किया गया? इसलिए कि अफजल गुरु को कम कठोर सजा (आजीवन कारावास) का हकदार बना दिया जाए? ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे? लाठी टूटेगी या बचेगी, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन सांप अवश्य जिन्दा रहेगा। सांप के मरने की खुशफहमी में यूपीए सरकार की अगर यह रणनीति है तो वह भारी मुगालते में है। आतंकी कभी भी सरकार को ब्लैकमेल करके कंधार विमान अपहरण कांड जैसा षडयंत्र रच कर अफजल को छुड़ा ले जा सकते हैं।'

प्रिय पाठकगण! 13दिसम्बर 2001 को आतंककारियों ने देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक पंचायत संसद पर हमला बोल दिया था। इससे भारत-पाक में तनाव बढ़ गया था। सेनाएं मोर्चे पर जा डंटी थी। इस हमले का एक मुख्य अपराधी अफजल गुरु को निचली अदालत ने 2002में फांसी की सजा सुनाई। उच्च न्यायालय ने भी 2003में इस सजा को बरकरार रखा। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने भी 2005में फांसी की सजा पर मुहर लगा दी। तभी राष्ट्रपति को दया याचिका पेश की गई। तभी से मामला सरकारी प्रक्रिया में अटका पड़ा था। हाल ही अफजल गुरु की फाइल आगे खिसकी तो माना गया कि अब अपराधी को वह सजा मिल सकेगी जो शीर्ष अदालत ने तय की है।

इस परिप्रेक्ष्य में पाठकों की कुछ और प्रतिक्रियाएं जानना सार्थक होगा।

जयपुर से देवेन्द्र कुमार भटनागर ने लिखा- 'अब अफजल को फांसी की सजा से कोई नहीं बचा सकता। गेंद गृह मंत्रालय के पाले में आ चुकी है। गृह मंत्रालय को अपनी सिफारिशों के साथ मामला राष्ट्रपति के सचिवालय को भिजवाना है। दया याचिका खारिज होने के बाद फांसी की तारीख मुकर्रर कर दी जाएगी। अगर गृहमंत्रालय या केन्द्र सरकार कोई अड़चन लगाती है तो उसकी भारी बदनामी होगी।'

कोटा से दीनबन्धु शर्मा ने लिखा- 'भारतीय दण्ड विधान में मृत्युदण्ड दुर्लभतम अपराध में ही दिया जाता है। अफजल संसद पर हमले का कसूरवार है। अगर भारत-पाक में युद्घ छिड़ जाता तो न जाने कितनी बेकसूर जानें चली जाती।'

इंदौर से के।एल. पुरोहित ने लिखा- 'संसद पर हमले में मारे गए सुरक्षाकर्मियों को सरकार ने जो वीरता पदक दिए थे, उनके परिजनों ने वे पदक इसलिए लौटा दिए थे क्योंकि सरकार अफजल को फांसी में देर कर रही थी। हैरत की बात है कि जिस अफजल गुरु को 20अक्टूबर 2006 को फांसी लगनी थी वह अभी तक सरकारी रोटियां तोड़ रहा है।'

बीकानेर से अनवर अली भाटी ने लिखा, 'अफजल पर दया करने की जरूरत ही कहां है। उसने माफी के लिए कभी नहीं कहा। वह तो अलगाववादियों और आतंककारियों के लिए मिसाल बनना चाहता है। दया याचिका तो उसकी पत्नी की तरफ से पेश की गई। अफजल के तेवर आज भी वही है।'

चेन्नई से नरेश मेहता के अनुसार, 'अफजल घाघ आतंककारी है। उसकी दलील है कि मृत्यु की प्रतीक्षा करना मृत्यु से भी बदतर है जो संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए उनके जीवन के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन है। आश्चर्य है संविधान की धज्जियां उड़ाने वाला ही संविधान की दुहाई दे रहा है।'
भोपाल से आशीष कुमार सिंह ने लिखा- 'मृत्युदण्ड की प्रतीक्षा में तिल-तिल कर मरने की व्यथा सिर्फ आतंककारी ही नहीं झोलते। जो लोग इनकी हिंसा के शिकार होते हैं, उनके रिश्तेदार भी जीवन भर तिल-तिल कर मरते हैं।

सम्भवत: इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए। इसमें साफ कहा गया कि फांसी देने में होने वाली देरी होने मात्र के आधार पर किसी अपराधी की सजा को कम नहीं किया जा सकता। ऐसा करते समय अन्य तथ्यों पर भी गौर करना चाहिए।'

प्रिय पाठकगण! सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों से स्पष्ट है, दुर्लभतम अपराध का दोषी माफी का हकदार नहीं बन सकता। जनमानस भी यही कहता है। अब फैसला सरकार को करना है।

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अब आगे क्या ?

एक पाठक का प्रश्न है- 'भोपाल गैस काण्ड के दोषियों को मामूली सजा सुनाने के बाद देश भर में हंगामा मचा है। क्या ऐसी प्रतिक्रिया उस वक्त हुई थी, जब 25 साल पहले यह भयानक त्रासदी घटी थी?'
जवाब पाठक ने खुद ही दिया है। 'उस वक्त शोक में डूबा राष्ट्र किंकर्तव्यविमूढ़ था। वह लाशें गिनने और लाखों गैस पीडि़तों के क्रन्दन से हतप्रभ था। जब सामान्य हुआ तो उसने देश के कर्णधारों और न्याय-व्यवस्था पर भरोसा किया। न्याय की आस में २५ साल काट दिए। लेकिन उसे मिला क्या? विश्वासघात! सचमुच उसके विश्वास को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया गया। उसके असीम धैर्य का जो सिला राष्ट्र के कर्णधारों ने दिया उससे वह भीतर तक बिंध गया। आज वह क्षोभ, ग्लानि और पश्चाताप की आग में झाुलस रहा है।'

प्रिय पाठकगण! भोपाल गैस काण्ड यानी दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी एक बार फिर सुर्खियों में है। 2-3 दिसम्बर 1984 की दरम्यानी रात को जो कुछ हुआ वह अनचाहा हादसा कहा जा सकता है। लेकिन बाद में जो कुछ प्रत्यक्ष और परोक्ष में घटता रहा उसे क्या कहेंगे? लापरवाही? भूल ... अमरीकी दबाव ... देशद्रोह ...? देखें पाठक क्या कहते हैं। खास बात यह कि अब आगे क्या? भोपाल की जिला अदालत के फैसले और कई नए तथ्यों की रोशनी में ऐसा क्या किया जाए कि गैस पीडि़तों को शीघ्र न्याय मिले। सभी दोषियों को सजा मिले। पाठकों ने इस पर तार्किक चर्चा की है।

भोपाल सेविशाल दुबे ने लिखा- 'गैस त्रासदी के दो मुख्य बिन्दु हैं- 1। आपराधिक 2. नागरिक। दोनों बिन्दुओं पर तत्कालीन केन्द्र और राज्य सरकार ने अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया, इसकी जांच होनी चाहिए। आपराधिक कर्तव्य के तहत गैस काण्ड के अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाना था। नागरिक कर्तव्य के तहत मृतकों के परिजनों और गैस पीडि़तों को पर्याप्त मुआवजा दिलाना था। इन दोनों बिन्दुओं पर सरकार सक्षम थी। सबूत और गवाह भी थे। लेकिन उसने बिलकुल उलट कार्य किया। कौडि़यों का मुआवजा लेकर यूनियन कार्बाइड को बख्श दिया। अमरीका में बैठी एंडरसन की पत्नी के बयान पर गौर करना चाहिए। उसने सब कुछ 'सैटल' होने की बात कही है। केन्द्र सरकार ने 15 फरवरी 1989 को यूनियन कार्बाइड से समझाौते में क्या 'सैटल' किया, देश को इसका पता चलना चाहिए।'

भोपाल से ही मुमताज अली ने लिखा- 'अमरीकन कम्पनी यूनियन कार्बाइड को 25 हजार लोगों की मौत और 6 लाख लोगों के बीमार पड़ने के बदले सिर्फ 710 करोड़ रुपए का मुआवजा लेकर बरी कर दिया गया। यह राशि कितनी नाकाफी है, इसका अंदाजा अमरीका में 9/11 हमले में मारे गए 2 हजार 8 सौ लोगों के परिजनों को मिले मुआवजे से लगाया जा सकता है। भारतीयों की जान की कीमत क्या है- जरा गौर करें। अमरीका में सभी 2800 मृतकों के परिजनों को एक साल के भीतर प्रति व्यक्ति 8 करोड़ रुपए का मुआवजा मुहैया कराया गया। जबकि भोपाल गैस काण्ड के 25 साल बाद भी मृतकों को औसत 2 लाख रुपए तथा घायलों को 50 हजार रुपए मुआवजा ही दिया जा सका है। कई घायल इलाज पर ही लाखों रुपए खर्च कर चुके हैं।'

जबलपुर से शशि शेखर ने लिखा- 'भारत सरकार चाहे तो वह अब भी यूनियन कार्बाइड से अतिरिक्त मुआवजा राशि की मांग कर सकती है। इसके लिए वह यूनियन कार्बाइड के खिलाफ अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में दावा कर सकती है। यह कार्रवाई न्यायसंगत ही नहीं, तर्कपूर्ण भी कही जाएगी। क्योंकि कम्पनी से जिस वक्त मुआवजा राशि तय की गई थी उस दौरान तीन हजार मौतें और करीब एक लाख लोगों के बीमार होने के मामले सामने आए थे। बाद में यह संख्या बढ़कर क्रमश: 25 हजार तथा 6 लाख हो गई। ये आंकड़े उन गैस दावा अदालतों द्वारा प्रमाणित हैं जिन्होंने गैस त्रासदी में मौतों और घायलों के लिए मुआवजे मंजूर किए हैं।'

जयपुर से विजय सिंह तंवर के अनुसार- 'यूनियन कार्बाइड के जिन सात अधिकारियों को दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनाकर जमानत पर छोड़ दिया गया, उसमें राज्य सरकार सी।आर.पी.सी. की धारा 172-ए के तहत सजा बढ़ाने की अपील करे। साथ ही सी.बी.आई धारा 304 (गैर इरादतन हत्या) के तहत मुकदमा चलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू अर्जी दाखिल करे। और केन्द्र सरकार वारेन एंडरसन को तत्काल भारत लाने की कार्रवाई करे।'

उदयपुर से गौरव मेहता ने लिखा- 'यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला ही दर्ज होना चाहिए। एंडरसन समेत सभी अधिकारियों ने गैस संयंत्र की सुरक्षा को लेकर आपराधिक लापरवाही बरती थी, जिसका विस्तृत विवरण सतीनाथ षडंगी के लेख 'सूना ही रह गया कठघरा' (पत्रिका 9 जून) में किया गया है।'

अहमदाबाद से प्रो. कीर्ति व्यास ने लिखा- 'केन्द्र और राज्य सरकार से सम्बंधित उन राजनेताओं और अफसरों का खुलासा होना जरूरी है, जो गैस त्रासदी काण्ड में निर्णायक भूमिका निभा रहे थे। केन्द्रीय जांच ?यूरो के पूर्व संयुक्त निदेशक बी।आर. लाल, भोपाल के तत्कालीन कलक्टर मोतीसिंह, प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव रहे पी.सी. अलेक्जेंडर, पायलट हसन अली, कैप्टन आर.सी. सोढ़ी आदि ने जो नए खुलासे किए हैं, उन पर इसलिए गौर करना जरूरी है कि राष्ट्र के समक्ष दूध का दूध और पानी का पानी होना चाहिए।'

कोटा से नीलिमा बंसल ने लिखा- 'जब भी रघु राय की खींची मिट्टी में दबे उस मृत बच्चे की तस्वीर देखती हूं- जो भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए लोगों की भयावहता का प्रतीक बन चुकी है- तो कांप उठती हूं। आखिर ऐसे कारखानों की हमें जरूरत ही क्यों है जो मानवता और प्रकृति के निर्मम हत्यारे साबित हो रहे हैं।'

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