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नक्सली नासूर !

17 मई, दंतेवाड़ा: नक्सलियों ने यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ाया, 40 मरे

28 मई, प. मिदनापुर:नक्सलियों ने रेलवे ट्रेक उड़ाया, 140
ये वे तारीखें हैं, जिन्हें सरकार और राजनेताओं ने नजरअंदाज किया तो उन्हें जिन्दगी भर पछताना पड़ेगा। देश की नजर में वे गुनहगार माने जाएंगे।चेतावनी के ये शब्द पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सार है, जिन्होंने हाल ही की नक्सली करतूतों पर व्यक्त की हैं। नक्सली हिंसा के लम्बे इतिहास के बावजूद प्रबुद्ध पाठकों ने उपरोक्त दो तिथियों पर खास जोर दिया है। कारण उन्हीं से जानते हैं-

कोटा से डॉ. सुनील एस. चौहान ने लिखा- 'पिछले 60 वर्ष के इतिहास में नक्सलियों ने निर्दोष नागरिकों को कभी निशाना नहीं बनाया। उनका शिकार पुलिस, सरकारी अफसर, जमींदार, मुखबिर या फिर दुश्मनों के लिए बिछाई बारूदी सुरंगों के फटने से अनायास मारे गए नागरिक शामिल थे। नक्सली अपने मापदंडों पर गुनाह-बेगुनाह का फैसला करते हैं। इसलिए कर्तव्य पालन करने वाले पुलिस के जवान को भी वे अपना दुश्मन मानते हैं। सहमत न होते हुए भी यहां तक तो उनकी विचारधारा समझा में आती है लेकिन 17 और 28 मई की घटनाओं को वे क्या कहेंगे जिनमें लक्ष्य करके बेकसूर नागरिकों को मारा गया? कोई नक्सली या माओवादी इसका जवाब देगा? माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले बुद्घिजीवी और राजनेता कहां हैं? शायद उन्हें सांप सूंघ गया। ज्यादा कुरेदेंगे तो कह देंगे हिंसा से वे सहमत नहीं। उनका यही दोगला चरित्र राष्ट्र को खा रहा है। साफ है कि नक्सली अपनी घोषित विचारधारा को तिलांजलि दे चुके हैं और अराजकता के रास्ते सत्ता पर कब्जा करने की तैयारी कर रहे हैं। इसलिए आतंककारियों की तरह निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। यात्री बस और रेलगाड़ी को उड़ाने की ये दो घटनाएं इसका नया सबूत है। 'जयपुर से राजस्थान विश्वविद्यालय के शोधार्थी दीपेन्द्र जैन ने लिखा- 'दंतेवाड़ा में 17 मई को बारूदी सुरंग विस्फोट करके जिन 40 बस यात्रियों को उड़ाया, उनमें कुछ पुलिस के जवान भी थे। नक्सलियों ने इस घटना की जिम्मेदारी ली थी। लेकिन उनका कुतर्क देखिए। कथित नक्सली नेता रामन्ना ने कहा, बस को इसलिए उड़ाया क्योंकि उसमें पुलिस के अधिकारी सवार थे। सरकार ने जनता को ढाल की तरह इस्तेमाल किया। इसलिए सरकार ही इन मौतों की जिम्मेदार है। (पत्रिका 28 मई, आत्मघाती साबित होगी नरमी) क्या कोई रामन्ना से पूछने वाला है कि झाारग्राम में मारे गए 140 रेलयात्रियों में कितने पुलिस के जवान थे? रामन्ना अब कहां छिपा बैठा है?'

भोपाल से रफीक कुरैशी ने लिखा- 'मुझो उन लोगों पर तरस आता है जो माओवादियों की वकालत करते हैं। नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाली अरुंधती राय जैसी बुद्घिजीवी अब चुप क्यों हैं? झाारग्राम रेल हादसे का जिसने भी अखबारों में विवरण पढ़ा, उसकी रूह कांप गई होगी। मासूम चीत्कारों और कटी-पिटी वीभत्स निर्दोष लाशों को देखकर किसका दिल नहीं पसीजा होगा? शायद हमारे बुद्धिजीवी इस घटना में भी कोई तर्क तलाश रहे होंगे।'

नीलम शर्मा (जयपुर) के अनुसार- 'सम्पादकीय पृष्ठ पर 'नक्सलियों की निर्ममता' (29 मई) शीर्षक से प्रकाशित फोटो देखकर कलेजा मुंह को आ गया। ट्रेन का डिब्बा प्लास्टिक के खिलौने की तरह बिखरा पड़ा था और रेलयात्री का शव पुर्जा-पुर्जा रक्त से रंजित! यह किसी हैवान की ही कारगुजारी हो सकती है।'

कोलकाता से ज्ञानचंद्र व्यास ने लिखा- 'घोर अफसोस की बात है, नक्सली समस्या को अब भी राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। ममता बनर्जी माओवादियों का नाम लेने से परहेज कर रही हैं। चिदम्बरम ममता को नाराज करना नहीं चाहते। माकपा ममता से भयभीत है। सबको चुनाव लड़ने हैं। निकाय चुनाव के बाद तैयारी विधानसभा चुनाव की है। इसलिए सब अपनी-अपनी रणनीति के अनुसार नक्सलियों को देख रहे हैं। देश को कोई नहीं देख रहा है।'

बेंगलूरु से नवीन दोषी ने लिखा- 'नक्सली नासूर बन चुके हैं। नासूर को शरीर से काट फेंकना ही बेहतर है।'

जोधपुर से डॉ. रवीन्द्र माथुर ने लिखा- 'एक तो निरपराध नागरिकों की हत्याएं और ऊपर से नक्सलियों के लश्कर-ए-तैयबा से सम्पर्क की खबर (26 मई, शांति प्रक्रिया पर काली छाया) हमारी आंतरिक सुरक्षा को गंभीर चुनौती है।'

ग्वालियर से सतीश पटेरिया के अनुसार- 'पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है। यूपीए- दो को अपने एक वर्ष शासन के जश्न को खत्म करके नक्सलियों के खात्मे पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।'

नवलगढ़ (झुंझुनूं) से प्रीति कुमावत ने लिखा- 'नक्सलवाद आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक है।' अजमेर से नीरज शर्मा ने लिखा- 'नक्सली जब देश के आम आदमी को ही निशाना बनाने लग गए तो उन्हें देश का नागरिक मानना भूल होगी।' अलवर से गोपाल यादव ने लिखा- 'अफसोस की बात है कि बस यात्रियों के मारे जाने के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री ने नक्सलियों से वार्ता की पेशकश की जिसे नक्सलियों ने ठुकरा दी। (19 मई, हिंसा छोड़ो, बात करो) नक्सलियों से नरमी की क्या जरूरत है।'

प्रिय पाठकगण। 17 और 28 मई की घटनाओं पर अनेक पाठकों की प्रतिक्रियाएं शेष हैं। सभी का सार है कि निर्दोष नागरिकों की हत्याएं नक्सलियों की हताशा लेकिन खतरनाक इरादों का संकेत है। वे आदिवासियों के शोषण के नाम पर सिर्फ अराजकता फैला रहे हैं। उनमें और आतंककारियों में कोई फर्क नहीं।
बधाई संदेश
मध्य प्रदेश में पत्रिका के दो वर्ष पूर्ण होने पर देश भर से पाठकों के बधाई संदेश व शुभकामनाएं प्राप्त हुई हैं। पाठकों ने लिखा- 'सार्थक पत्रकारिता के माध्यम से पत्रिका ने मिसाल कायम की, जिससे पत्रिका अल्प समय में मध्य प्रदेश की आवाज बन गया और पाठकों का विश्वास अर्जित करने में सफल रहा। 'पत्रिका' की ओर से पाठकों का आभार व्यक्त किया गया है।

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