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टूट गई आस

जयपुर के सेवानिवृत्त शिक्षक घनश्याम वाष्र्णेय ने लिखा-'पत्रिका के 6 मार्च के अंक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का महंगाई पर बयान पढ़कर घोर निराशा हुई। (महंगाई रोकते तो बढ़ती बेरोजगारी) इस बयान में सरकार ने महंगाई से त्रस्त जनता को जोर का झाटका धीरे से मार दिया है। यह झाटका मुझो तो पेट्रोल-डीजल की कीमतों से भी बड़ा लगता है। कम-से-कम अब तक आस तो बंधी थी, क्योंकि सरकार महंगाई कम करने के लगातार आश्वासन दे रही थी।

पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी दोनों ने आश्वासन दिया था कि सरकार पूरी कोशिश कर रही है- जल्द परिणाम सामने आएंगे। (पत्रिका 6 फरवरी) अगले ही दिन मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने कहा- महंगाई का सबसे खराब दौर बीत चुका है और अब अच्छे दिन आने वाले हैं। (बुरा वक्त बीत गया, पत्रिका 7 फरवरी) इसके बाद भी सरकार महंगाई के मुद्दे पर जब-जब घिरी, उसने यही भरोसा दिलाया, महंगाई पर जल्द काबू पा लिया जाएगा। इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाए, तो यह आस थी कि बाकी चीजों में सरकार महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही जनता को राहत पहुंचाएंगी। लेकिन आस टूट गई।'

कोटा के दीपसिंह हाड़ा ने लिखा- 'खाद्य वस्तुओं के दाम तो घटे नहीं, पेट्रोल-डीजल के दाम और बढ़ा दिए। यह तो कोढ़ में खाज वाली बात हुई। पेट्रोल के दाम घटने की कोई उम्मीद नहीं है। वित्त मंत्री ने साफ कहा कि वाजपेयी सरकार ने पेट्रोल-डीजल की कीमतों में 33 बार बढ़ोतरी की थी। और अब तो केन्द्र सरकार को संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी की भी हरी झंडी मिल गई।' (पत्रिका 5 मार्च)

इंदौर से गृहिणी सुषमा जैन के अनुसार- 'पेट्रोल महंगा तो समझो सब कुछ महंगा। घर-गृहस्थी की रोजमर्रा की कीमतें पहले से आसमान छू रही थीं। अब तो भगवान ही मालिक है।'

अजमेर से पुरुषोत्तम दास ने लिखा- 'अभी राजस्थान में गहलोत सरकार से एक उम्मीद और बची है। सरकार राज्य में पेट्रोल-डीजल पर वैट कम करके जनता को कुछ हद तक राहत पहुंचा सकती है।'

प्रिय पाठकगण! महंगाई को लेकर पिछले दिनों से पाठकों की प्रतिक्रियां लगातार मिल रही हैं। उच्च वर्ग को छोड़कर महंगाई से हर कोई त्रस्त है। ऐसे में सरकार की ओर से जब भी कोई बयान प्रकाशित होता है, पाठक खुलकर अपनी बात कहते हैं। शायद यही कारण है कि महंगाई के कारणों और इसके उपायों पर उनका सरकार से भिन्न व स्पष्ट दृष्टिकोण है। महंगाई क्यों बढ़ रही है- इस पर आर्थिक विश्लेषक, राजनीतिक दल और सरकार के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन आमजन इसे किस नजरिए से देख रहा है, इसकी बानगी पाठकों की इन प्रतिक्रियाओं से जाहिर है।

जोधपुर से गोपाल अरोड़ा ने लिखा- हमारे देश में कीमतें भी राजनीतिक उद्देश्यों से घटती-बढ़ती हैं। केन्द्र सरकार ने चुनाव से पहले पेट्रोल के दाम दस रुपए तक घटा दिए थे। हरियाणा में राज्य सरकार ने चुनाव पूर्व पेट्रोल-डीजल पर वैट की दरें काफी कम कर दी थीं। कीमतें घटाने का काम हमेशा चुनाव से पहले ही क्यों होता है?'

भोपाल से इंद्रजीत सिंह ने लिखा- 'एक तरफ तो विकास दर के मामले में हम अमरीका, जापान जैसे विकसित देशों से आगे बताए जा रहे हैं। जल्दी ही चीन को भी पीछे छोडऩे की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ खाद्यान्नों की कीमतों पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं। नियंत्रण तो दूर की बात, उचित वितरण प्रणाली तक कायम नहीं कर पाए हैं। जबकि हमारे भण्डारों में 2 करोड़ टन लक्ष्य के मुकाबले इस समय 4।8 करोड़ टन खाद्यान्न पड़ा हुआ है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े चीनी उत्पादक देश (भारत) में चीनी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई है।'

बेंगलुरू से डा. दीपक परिहार ने लिखा- 'माना सरकार ने किसानों की भलाई के लिए चावल, गेहूं, गन्ना आदि के समर्थन मूल्यों में अच्छी-खासी बढ़ोतरी की, जिससे इनके दाम बढ़े। लेकिन इसका वास्तविक फायदा न तो किसानों को मिला और न आम उपभोक्ताओं को। फायदा तो बड़े व्यापारी और बिचौलिए उठा रहे हैं।'

श्रीगंगानगर से प्रतिभा खत्री ने लिखा- 'काला बाजारियों और जमाखोरों के कारण कीमतें आसमान छू रही हैं। ये बड़े-बड़े जमाखोर सभी पार्टियों को चंदा देते हैं। इसलिए कोई इन पर हाथ नहीं डालता। यहां के किसानों को तो किन्नू और कपास के भी उचित दाम नहीं मिलते।'

बीकानेर से अर्थशास्त्र के विद्यार्थी देवेन्द्र पुरोहित ने लिखा- 'जिंसों की कीमतें मांग और आपूर्ति से तय होती हैं। यह सही है कि जरू री जिंसों की आपूर्ति मांग से कम रही है। लेकिन कीमतों में जो उछाल आया वह स्वाभाविक आर्थिक सिद्धांतों से कहीं मेल नहीं खाता। वर्ष 2004 से तुलना करें, तो चावल में 130 प्रतिशत, चीनी में 197 प्रतिशत तथा अरहर दाल में 252 प्रतिशत कीमतों की बढ़ोतरी अविश्वसनीय ही मानी जाएगी।' प्रिय पाठकगण! अन्य कई पाठकों के पत्रों का सार है कि महंगाई पर नियंत्रण करना सरकार का प्राथमिक दायित्व है। विकास और कीमतों में तार्किक संतुलन हो, जो उत्पादकता बढ़ाकर हासिल किया जाना चाहिए न कि कीमतें बढ़ाकर।

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