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बच्चों पर दबाव

* जनता नगर निवासी दसवीं की छात्रा स्मिता सिंह ने घर में चुन्नी के फंदे से लटक कर जान दी। (11 जनवरी)
* न्यू कॉलोनी में एविएशन की छात्रा अर्चना राठौड़ ने फंदे पर झूलकर खुदकुशी की। (16 जनवरी)
* बालाजी विहार की सी.ए. की छात्रा प्रीति दास ने ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या की। (17 जनवरी)
* इंद्रा कॉलोनी में 9वीं की छात्रा गरिमा शर्मा ने फांसी लगाकर खुदकुशी की। (20 जनवरी)

'पत्रिका' में प्रकाशित इन खबरों का उल्लेख करते हुए जयपुर के पाठक पुनीत शर्मा ने लिखा- 'हम और कितनी मासूम आत्महत्याओं का इंतजार करेंगे? शहर में दस दिन में चार आत्महत्याएं! वह भी उन हाथों से जिन्होंने अभी जिन्दगी का बोझ उठाना शुरू भी नहीं किया था। जिन्दगी उनके लिए बोझिल कैसे बन गई? क्या ये घटनाएं हम सभी के लिए खतरे की गंभीर चेतावनी नहीं है? किशोर व युवा छात्र-छात्राओं में आत्महत्या की घटनाएं पूरे देश में तेजी से बढ़ रही है। आखिर विद्यार्थी-वर्ग आत्महत्या क्यों कर रहा है? कौन है इसके लिए जिम्मेदार? क्या युवाओं को असमय मौत को गले लगाने से रोका नहीं जा सकता? क्या उन्हें जिन्दगी का बेशकीमती मर्म समझाया नहीं जा सकता?'

प्रिय पाठकगण! पुनीत की तरह अन्य कई पाठकों ने भी इस ज्वलंत सामाजिक मुद्दे को उठाया है और इसके कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर सबका ध्यान आकर्षित किया है। पहले यह स्पष्ट कर दूं कि उपरोक्त जिन घटनाओं का पाठक ने उल्लेख किया है, उन सभी में आत्महत्या के अलग-अलग कारण हो सकते हैं। हर आत्महत्या दुखद और चिन्ताजनक है, लेकिन परीक्षा में विफलता, पढ़ाई का बोझ (एग्जाम स्ट्रेस) या अच्छे अंकों के लिए दबाव के चलते की जाने वाली आत्महत्या की घटनाएं जिस तेजी से बढ़ रही हैं, वे सचमुच खतरे की घण्टी है। अधिकतर पाठकों ने इसी पर चर्चा की है।

भावना परमार (उदयपुर) ने लिखा- 'अमरीका में 15 से 24 आयु वर्ग में होने वाली मौतों का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है और अब भारत में इस आयु वर्ग में आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण परीक्षा में उच्च अंकों का दबाव बनता जा रहा है।'

अहमदाबाद से धर्मेश मेहता के अनुसार- 'मुंबई की तेरह वर्षीय किशोरी रू पाली शिन्दे ने इसलिए खुदकुशी की, क्योंकि उसकी मां हरदम उस पर अच्छे माक्र्स के लिए दबाव डालती थी। स्कूली छात्र सुशान्त पर भी ऐसा ही दबाव पिता ने डाला, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सका और मौत को गले लगा लिया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। सम्भवत: इन घटनाओं के चलते ही हाल ही केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल (2 फरवरी) ने बच्चों की आत्महत्या के लिए माता-पिता को जिम्मेदार ठहराया है।'

दीपक जैन (कोटा) ने लिखा- 'कपिल सिब्बल का सीबीएसई बोर्ड में दसवीं की परीक्षा वैकल्पिक करने का निर्णय सही है। न परीक्षा होगी न माता-पिता दबाव डालेंगे।'

भीलवाड़ा से आसकरण माली ने लिखा- 'माता-पिता कर्जा लेकर बच्चों की महंगी फीस चुकाते हैं। ऊपर से ट्यूशन-कोचिंग का खर्चा भी करते हैं। इसके बावजूद बच्चा पढ़ाई में ध्यान नहीं देता तो क्या उन्हें डांटने का भी हक नहीं।'

डा. रमेश त्रिपाठी (इंदौर) के अनुसार- 'माता-पिता अपनी आकांक्षाएं बच्चों पर थोपते हैं। वे अपने अधूरे सपने बच्चों के मार्फत पूरा करना चाहते हैं। परीक्षा के दौरान कई माता-पिता तो रातभर अपने बच्चे के साथ जागते हैं। बच्चे की क्षमता और सीमाओं का आकलन किए बगैर उस पर बोझ डालना उचित नहीं। वह डिप्रेशन का शिकार हो जाएगा। टेक्सास यूनिवर्सिटी का हाल का एक अध्ययन बताता है कि 75 फीसदी किशोर-किशोरियां डिप्रेशन में सुसाइड करते हैं।'

हरि पुरोहित (बीकानेर) के अनुसार- 'बच्चा क्या पढऩा चाहता है- यह जानना माता-पिता के लिए जरू री है वरना वह परीक्षा में पास होकर भी जिन्दगी में फेल हो जाएगा।'

अनवर हुसैन (जयपुर) ने लिखा- 'एक अध्ययन के अनुसार पिछले 60 साल में किशोर उम्र के विद्यार्थियों में आत्महत्या की दर में तीन गुना इजाफा हो गया। भले जिन्दगी को लेकर अलग-अलग फलसफे हों, मगर जिन्दगी जैसी खूबसूरत कोई और नियामत नहीं। लिहाजा बचपन से बच्चों को जिन्दगी की अहमियत समझाई जानी चाहिए।'

जोधपुर से सुशान्त भट्टाचार्य ने लिखा- 'आत्महत्याओं के खिलाफ माहौल बनाया जाए। मीडिया और स्वयंसेवी संगठन इसमें कारगर भूमिका निभा सकते हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 'सेव' (सुसाइड अवेयरनेस वाइसेज ऑफ एजुकेशन) जैसे संगठनों की मदद ली जा सकती है। अवसाद ग्रस्त बच्चों के मार्गदर्शन के लिए राष्ट्रीय हेल्पलाइन हो तथा स्कूलों में काउंसलिंग व्यवस्था अनिवार्यत: लागू हो।'

राखी तनेजा (बेंगलुरू ) ने लिखा- 'कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली की प्रसिद्ध मनोविश्लेषक डा। अरुणा ब्रूटा ने यह बताकर सबको चौंका दिया कि दसवीं बोर्ड की परीक्षा शुरू होने से पहले ही राजधानी के लगभग 300 बच्चे उनके पास लाए जा चुके थे, जिन्होंने परीक्षा के दबाव के चलते आत्महत्या का प्रयास किया।'

प्रिय पाठकगण! ये हालात चिन्तनीय हैं- माता-पिता, शिक्षक, स्कूल प्रबंधक, शिक्षाविदों व सरकार सबके लिए। जीवन अनमोल है- खासकर उन कलियों के लिए जिन्हें अभी फूल बनकर खिलना है और बगिया को महकाना है। ध्यान रखें, आत्महत्या करने वाला बच्चा कहीं हमसे यह कहना तो नहीं चाहता था- गिव मी सम सनशाइन! और हमने उसे अनसुना कर दिया!!

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