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मीडिया कठघरे में

प्रिय पाठकगण! दूसरों पर सवाल उठाने वाला मीडिया स्वयं कठघरे में है। पिछली बार 'खबरों के पैकेज' (11 जनवरी) के बहाने मीडिया के भ्रष्टाचार की चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।


'हिन्दू' ने गत महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान राजनीति और मीडिया के संयुक्त भ्रष्टाचार को लेकर कई नवीन तथ्य उजागर किए। अखबार ने पी। साईनाथ की रिपोर्टों में खुलासा किया कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपने चुनाव अभियान के दौरान मीडिया के लिए करोड़ों रुपए के विज्ञापन जारी किए। इन विज्ञापनों को महाराष्ट्र के प्रमुख मराठी दैनिकों में समाचार की तरह प्रकाशित किया गया। यानी अखबारों ने पाठकों को और मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग को भ्रमित किया। 'हिन्दू' की रिपोर्ट के अनुसार मुख्यमंत्री ने अपने चुनाव खर्च का जो अधिकृत ब्यौरा जिला निर्वाचन अधिकारी को प्रस्तुत किया, उसमें उन्होंने अखबारों का 5,379 रुपए तथा टीवी चैनलों का मात्र 6000 रुपए का विज्ञापन खर्चा दर्शाया है। 'हिन्दू' की रिपोर्ट सवाल उठाती है कि मराठी अखबारों में अशोक चव्हाण के चुनाव अभियान के बारे में पूरे-पूरे पृष्ठों की जो सामग्री कई दिन तक प्रकाशित की गई, वह अगर न्यूज कवरेज थी, तो सभी अखबारों में एक जैसी क्यों थी। रिपोर्ट में कुछ प्रमुख मराठी दैनिकों में प्रकाशित ऐसे समाचारों के कई उदाहरण हैं, जिनके शीर्षक, इंट्रो यहां तक कि एक-एक पंक्ति शब्दश: मिलती-जुलती थी। जाहिर है, न विज्ञापन देने वाले के धन का हिसाब-किताब और न लेने वाले के धन का हिसाब-किताब किसी को पता चला।


लोकसभा चुनाव के उदाहरण तो और भी संगीन हैं। करीब नौ माह पहले हुए इन चुनावों में 'पेड न्यूज' का एक ऐसा वायरस आया, जिसने भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से को जकड़ लिया। सचमुच मीडिया में घुसी इस बुराई से उसकी विश्वसनीयता को जबरदस्त आघात लगा। स्व. प्रभाष जोशी के अनुसार- 'उस दौरान चुनाव सम्बंधी कोई भी खबर, फोटो या कवरेज यहां तक कि विश्लेषण भी उम्मीदवार से पैसे लिए बगैर नहीं छपा।' सम्भवत: सबसे पहले इसका खुलासा 'वॉल स्ट्रीट जनरल' की बेवसाइट पर नई दिल्ली ब्यूरो चीफ पाल बेकेट के एक लेख में किया गया। शीर्षक था- 'प्रेस कवरेज चाहिए? मुझे कुछ पैसा दो।' पाल बेकेट ने चण्डीगढ़ के एक निर्दलीय उम्मीदवार का अखबारों में नाम तक नहीं छपने का कारण बताया- कवरेज चाहिए तो पैसा दो। उस उम्मीदवार ने पाल को बताया कि अखबारों की तरफ से कई दलाल उससे मिल चुके हैं- खबरें छपवानी है तो फीस तो चुकानी पड़ेगी। कवरेज के हिसाब से उन्हें पैकेज की दरें भी बताई गईं। पाल के लेख के अनुसार निर्दलीय उम्मीदवार ने केवल परखने के उद्देश्य से अपने चुनावी दौरे की झूठ-मूठ खबर बनाकर दी तो वह अखबारों में हू-ब-हू छप गई।

एक उदाहरण राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के उत्तर प्रदेश के एक संस्करण का है। उसने अपना सम्पूर्ण प्रथम पृष्ठ एक उम्मीदवार के चुनाव अभियान के विज्ञापन का प्रकाशित किया। लेकिन सामग्री इस ढंग से प्रकाशित की कि वह खबरों का पृष्ठ लगे। बाकायदा लीड स्टोरी के साथ तीन कॉलम फोटो, सैकण्ड लीड, डबल कालम, तीन कालम की खबरें तथा नीचे स्टीमर (बॉटम न्यूज) आदि वैसे ही छपे थे जैसे अखबार का प्रथम पृष्ठ हो। ये सभी खबरें और फोटो एक ही उम्मीदवार से संबंधित थीं। कहीं पर भी विज्ञापन का उल्लेख नहीं था। इस पर पाठकों में हल्ला मचा तो अखबार ने अगले दिन स्पष्टीकरण प्रकाशित कर दिया कि कल प्रकाशित प्रथम पृष्ठ वास्तव में एक उम्मीदवार का चुनावी विज्ञापन था, इसका अखबार के संपादकीय विचारों से कोई तादात्म्य नहीं। सवाल है- इस स्पष्टीकरण की क्या उपयोगिता रही, खासकर तब, जब उसी दिन लोग मतदान कर रहे थे।

बात हिन्दी-अंग्रेजी के कई बड़े राष्ट्रीय दैनिकों तक सीमित नहीं थी। प्रांतीय भाषाओं के प्रमुख अखबार जिनका देश भर में विशाल पाठक-वर्ग है- भी इसी राह पर चल रहे थे। बल्कि कई तो सभी सीमाएं लांघ चुके थे।

भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य श्रीनिवास रेड्डी (द संडे एक्सप्रेस) के अनुसार- '2009 के आम चुनावों में आंध्र प्रदेश के अधिकांश स्थानीय अखबारों ने 300 करोड़ से भी ज्यादा धनराशि ऐसे तरीकों से बटोरी।'


पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि पूरे देश में चुनावों के दौरान केवल मीडिया पर ही कितना धन फूं का गया होगा! क्या यह राजनेताओं की अपनी कमाई थी? एक पाठक शिरीष चंद्रा (कोलकाता) के अनुसार- 'यह जनता का पैसा था, जो काले धन के रू प में मीडिया को इस्तेमाल करने के लिए उपयोग किया गया, लेकिन मीडिया तो खुद ही खबरों के पैकेज बनाकर तैयार खड़ा था।'

पाठकों को याद दिला दूं, साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका 'आउटलुक' (21 दिसम्बर 09) ने कई नेताओं के बयान प्रकाशित किए, जिन्होंने अपने चुनाव कवरेज के लिए प्रिन्ट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पैसा दिया था या जिनसे पैसे की मांग की गई।

पाठक को सूचना और चुनावी विश्लेषण करके राजनीतिक हालात का जायजा देना मीडिया का प्राथमिक उत्तरदायित्व है। इसीलिए लोग मीडिया पर भरोसा करते हैं। 'पेड न्यूज' इस भरोसे को तोड़ती है। 'आउटलुक' के संपादक और जाने-माने पत्रकार विनोद मेहता कहते हैं- 'पेड न्यूज हमारी (मीडिया की) सामूहिक विश्वसनीयता पर एक गम्भीर खतरे के रूप में उभर रही है।'

प्रिय पाठकगण! मीडिया के एक जिम्मेदार वर्ग ने हाल में इसी खतरे को भांपकर इस मुद्दे पर सबका ध्यान खींचा है। इनमें 'पत्रिका' भी शामिल है। प्रसन्नता की बात यह है कि पाठकों की इस पर बहुत ही सकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं।

पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-

ई-मेल: anand.joshi@epatrika.com

एसएमएस: baat 56969

फैक्स: 0141-2702418

पत्र: रीडर्स एडिटर,

राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,

जयपुर

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