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खबरों के पैकेज !

मीडिया में 'पेड न्यूज' का मुद्दा चर्चा में है। चुनावों के दौरान पैसा लेकर खबरें छापने और प्रसारित करने पर हाल ही मीडिया- खासकर, प्रिन्ट मीडिया में गम्भीर चर्चा हुई है। मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पी. साईनाथ और स्व. प्रभाष जोशी जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारों ने इस मुद्दे को उठाया और राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान केन्द्रित किया। जयपुर में झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान के दौरान भी यह मुद्दा उठा। खास बात यह है कि मीडिया में आई इस बुराई को मीडिया ने उठाया। अब आमजन और पाठक भी इस मुद्दे पर मुखर होने लगे हैं।

जयपुर से विजय श्रीमाली ने लिखा, 'चुनाव में पैसे लेकर खबरें छापने का आरोप पत्रकारों और अखबारों पर पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के समक्ष अनेक अखबारों और न्यूज चैनलों ने चुनाव कवरेज के लिए जिस तरह खबरों के पैकेज रखे- कुछ ने तो बाकायदा रेट कार्ड छपवाए- वह भारतीय मीडिया-जगत की अपूर्व घटना है। अपूर्व और शर्मनाक! सम्भवत: इसीलिए मीडिया के एक जिम्मेदार वर्ग में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। मुझे यह सुखद लगा कि पिछले दिनों इस मुद्दे को कुछ अखबारों ने जोर-शोर से उठाकर जनता को जागरू क करने की कोशिश की है। मीडिया के भ्रष्टाचार को अगर मीडिया का ही एक जागरू क तबका उजागर करने को कटिबद्ध है, तो मुझे पूरी उम्मीद है कि भ्रष्ट मीडिया को जनता सबक सिखाकर मानेगी।'

भोपाल से सुभाष रघुवंशी ने लिखा- 'विज्ञापन और खबर में रात-दिन का अंतर होता है। लेकिन कई अखबारों ने चुनाव अभियान के विज्ञापनों को खबरों की तरह प्रकाशित किया। ऐसी सामग्री में ्रष्ठङ्कञ्ज यानी 'विज्ञापन' लिखने की सामान्य परिपाटी है, जिसका उल्लंघन किया गया। इससे विज्ञापन और खबर का भेद मिट गया। पाठक भ्रमित हुए।'

उदयपुर से डॉ. एस.सी. मेहता के अनुसार- 'मीडिया की पहचान और अस्तित्व खबरों पर टिके हैं। खबरों में मिलावट करके तो वह अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मार रहा है।'

प्रिय पाठकगण! बात अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने तक सीमित नहीं है। यह लोकतंत्र के चौथे पाये की विश्वसनीयता का गम्भीर मुद्दा है। इसमें काला धन, भ्रष्टाचार और राजनीतिक गठजोड़ के अनैतिक और अवैधानिक पहलू जुड़े हैं। स्व। प्रभाष जोशी के अनुसार मीडिया का काम जनता की चौकीदारी करना है। लेकिन चौकीदार की अगर चोर से ही मिली-भगत हो, तो जनता का क्या होगा।

लिहाजा जनता को जागरूक करने की मीडिया के उस वर्ग की चिन्ता जायज है जो 'पेड न्यूज' या 'पैकेज जर्नलिज्म' को अनैतिक मानता है। ध्यान रहे, 'पेड न्यूज' और विज्ञापन में अन्तर स्पष्ट है। जाने-माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई के अनुसार- 'अगर एक राजनेता या कारपोरेट घराना अखबार में संपादकीय जगह या टीवी पर एयर टाइम खरीदना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है। लेकिन उसे नियमानुसार इसकी घोषणा करनी होगी।' राजदीप आगे लिखते हैं- 'जब राजनीतिक/ व्यावसायिक ब्राण्ड गैर पारदर्शी ढंग से घुसा दिया जाता है, जब विज्ञापन फार्म या कंटेट में साफ फर्क के बगैर खबर के रू प में पाठक या दर्शक के सामने आता है, तब वह खबरों की शुचिता का उल्लंघन है।'

प्रिय पाठकगण! पी. साईनाथ ने पिछले दिनों 'हिन्दू' में प्रकाशित अपनी खोजपूर्ण रिपोर्टों में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के दौरान कुछ प्रमुख मराठी दैनिकों में खबरों की इसी शुचिता के उल्लंघन को तथ्यों के साथ उजागर किया है। मराठी ही क्यों अन्य कई भाषाई अखबार हिन्दी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिक भी कठघरे में हैं। (पाठकों को बता दूं इसमें 'पत्रिका' शामिल नहीं है।) गत वर्ष लोकसभा और कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान खबरों की इस अनैतिक बिक्री पर हाल ही देश के प्रिन्ट मीडिया ने अनेक तथ्य प्रकाशित किए हैं। बड़े-बड़े राजनेताओं के हवाले से लिखा है कि कौन-कौन से अखबारों ने चुनाव प्रचार के बदले धन की मांग की। आंखें खोल देने वाली ये रिपोर्टें 'हिन्दू', 'इण्डियन एक्सप्रेस', 'आउट लुक' (अंग्रेजी साप्ताहिक) में प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी दैनिक 'जनसत्ता' में स्व. प्रभाष जोशी ने इस मुद्दे को सबसे पहले उठाया। निश्चय ही यह संपूर्ण भारतीय मीडिया-जगत का सर्वाधिक चिन्तनीय मुद्दा है, जिस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

अहमदाबाद के एक पाठक एच.सी. जैन ने लिखा- 'मीडिया की बदौलत रुचिका गिरहोत्रा का मामला राष्ट्रीय सुर्खियों में आया और हरियाणा के पूर्व पुलिस अफसर राठौड़ पर शिकंजा कसा। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, नीतिश कटारा जैसे प्रकरणों में प्रभावशाली-शक्तिशाली अभियुक्त तमाम दबावों के बावजूद बच नहीं सके। अनेक बड़े राजनेताओं के भ्रष्टाचार को मीडिया ने उजागर किया। मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार का मामला सबसे पहले झारखण्ड के एक हिन्दी अखबार 'प्रभात खबर' ने उजागर किया। जाहिर है, मीडिया जनता की आवाज है। जनता उसे अपना दोस्त और संरक्षक मानती है। ऐसे में अगर मीडिया खुद भ्रष्टाचार में लिप्त होगा, तो वह अन्याय के खिलाफ कैसे लड़ेगा।'

जयपुर से विमल पारीक ने लिखा- 'भ्रष्टाचार में लिप्त होकर मीडिया अपनी ताकत और प्रभाव खो रहा है। झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान के दौरान 'पत्रिका' समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने सही कहा- (पत्रिका 5 जनवरी) 'लोकतंत्र को बचाना है तो मीडिया का इलाज करना जरूरी है। मीडिया के कमजोर होने के कारण लोकतंत्र के अन्य तीन स्तम्भ शिथिल हो गए हैं।'

प्रिय पाठकगण! मीडिया की कमजोरी और शिथिलता की चर्चा अभी अधूरी है। पिछले दिनों प्रिन्ट मीडिया ने इस मुद्दे पर क्या तथ्य देश की जनता के सामने रखे। खबरों के पैकेज क्या हैं। इसमें राजनीतिक उम्मीदवार, दल, अखबार और टीवी चैनलों की क्या भूमिका रही। पाठक इन मुद्दों पर और क्या कहते हैं? इन पर चर्चा अगली बार।
पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-
एसएमएस: baat 56969
फैक्स: ०१४१-2702418
पत्र: रीडर्स एडिटर,
राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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